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Showing posts from October, 2018

सीताफल

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सबका पसंदीदा - सीताफल.......! बस्तर में सीताफल बहुतायत में मिलता है। यहां के जंगलों में सीताफल के छोटे पेड़ हर जगह देखने को मिलते है। पतली डालियां युक्त सीताफल का छोटा सा पेड़ हर ग्रामीण के बाड़ी में जरूर दिखता है। दंडकारण्य के जंगलों में भगवान राम ने अपने वनवास के चैदह साल बिताये है।  वनवास के दौरान भगवान राम सिर्फ कंदमूल और फल ही खाते थे। यहां बस्तर में ऐसी मान्यताये भी सुनने को मिलती है भगवान राम को जो फल पसंद था वो रामफल कहलाया और माता सीता का पसंदीदा फल सीताफल कहलाया।  सीताफल लगभग सभी को पसंद आता है। हरे रंग के आवरण के अंदर सफेद रंग पल्प होती है जो काले बीजों पर लगी होती है। उस पल्प का स्वाद बेहद ही मीठा होता है। सीताफल को सरीफा भी कहते है। ठंड के मौसम इसकी बंपर आवक होती है।  इधर ठंड चालू होती है और बाजारों मे सीताफल आने चाले हो जाते है। सीताफल के अधिक सेवन से सर्दी होना तय है। सीताफल शुगर गठिया एवं ह्दय रोगों के उपचार के लिये प्रमुख औषधि का भी कार्य करता है।  सीताफल अधिक दिनों तक रखने से खराब हो जाता है। सीताफल के पल्प से बनी आईसक्रीम बड़ी अच्छी लगती है। इस बार बस्...

बोध मछली

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बस्तर की शार्क - बोध मछली.....! बस्तर की इंद्रावती नदी में एक समय बस्तर की शार्क कही जाने वाली बोध मछली बहुतायत में पायी जाती थी किन्तु अत्यधिक शिकार के कारण यह अब विलुप्ती की कगार पर पहुंच गई है। यह मछली वजन में 150 किलो तक हो जाती है। इस मछली को पकड़ने के लिये लोहे की जाल का इस्तेमाल किया जाता है क्योंकि सामान्य जाल को यह अपने दांतों से काट देती है इसलिये इसे बस्तर की शार्क कहा जाता है। बोध मछली असल में कैटफिश है जिसका वैज्ञानिक नाम बोमारियस बोमारियम है। इंद्रावती नदी के कि नारे रहने वाले कुडूक जाति के लोग इस मछली की पूजा करते है। बारसूर का बोधघाट गांव बोध मछली के नाम पर ही पड़ा है। मछली के अधिक वजनी होने के कारण मछुआरे इसका अत्यधिक शिकार करते है। यह मछली बाजार में दो हजार रूपये तक की कीमत में बिकती है। पानी से 24 घंटे तक बाहर रहने के बावजूद भी यह मछली जिंदा रहती है। बस्तर में इंद्रावती के अलावा कोटरी नदी में भी बोध मछलियां पायी जाती थी किन्तु अब वहां यह मछली यदा कदा ही दिखती है। इसके अतिरिक्त देश की ब्रहमपुत्र व गोदावरी के अलावा बस्तर की इंद्रावती नदी में चित्रकोट जलप्रपात के नीचे से ...

विशाल काष्ठ रथ

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बस्तर दशहरा का आकर्षण - विशाल काष्ठ रथ.....! बस्तर की आदिम संस्कृति एवं अनोखी रस्में बस्तर दशहरा को बेहद ही अनूठा बनाती है। एक ओर दशहरा पर्व अच्छाई कीे बुराई पर विजय के प्रतीक के तौर पर मनाया जाता है। रावण के पुतले दहन किये जाते है वहीं बस्तर में पुतले दहन ना करके दशहरा में काष्ठ रथों को खींचने की अनोखी परंपरा है। यहां रावण दहन ना करके 75 दिनों पूर्व से ही रथ बनाने एवं उससे जुड़ी परंपराओं का निर्वहन किया जाता है जिसके कारण इसे विश्व का सबसे लंबा दशहरा का भी गौरव प्राप्त है।  बस्तर दशहरा में सबसे मुख्य आकर्षण का केन्द्र दुमंजिला भवन का भव्य  काष्ठ रथ होते है।  हर साल नये सिरे से बनाए जाने वाले इस रथ को बनाने वाले कारीगरों के पास भले ही किसी इंजीनियरिंग कालेज की डिग्री न हो, लेकिन जिस कुशलता और टाइम मैनेजमेंट से इसे तैयार किया जाता है, वह आश्चर्य का विषय साबित हो सकता है। रथ के चक्कों से लेकर धुरी (एक्सल)तथा रथ के चक्कों व मूल ढांचे के निर्माण में ग्रामीण अपने सीमित घरेलू औजार कुल्हाड़ी व बसूले, खोर खुदनी सहित बारसी का ही उपयोग करते हैं। काष्ठ रथ बनाने से जुड़ी रस्में पाटजात्र...

गेड़ी

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लूप्त होती जा रही बस्तर की गेड़ी परंपरा......! बस्तर में बहुत सी पुरानी परंपराये अब समय के साथ विलुप्त होती जा रही है। गेड़ी परंपरा भी अब बस्तर से विलुप्ति की कगार पर है। आज भी बस्तर के कुछ ग्रामीण क्षेत्रो मे गेड़ी चढ़ने की पुरानी परंपरा देखने को मिलती है। यहां बस्तर में गेड़ी को गोड़ोंदी कहते है।   हरियाली त्यौहार मनाने के बाद गेड़ी चढ़ने की परंपरा निवर्हन की जाती है। गेड़ी बनाने के लिये 7 फीट की दो लकड़ियों में 3 फीट की उंचाई पर पैर रखने के लिये लकड़ी का गुटका लगाते है। काफी संतुलन एवं अभ्यास के बाद गेड़ी पर चढ़कर बच्चे गांव भर में घुमते है। कई बच्चे एक दुसरे गेड़ी के डंडे टकराकर करतब भी दिखाते है। इसे गोडोंदी लड़ाई कहते है।  बस्तर के कुछ क्षेत्रों में गेड़ी से जुड़ी कुछ मान्यताये भी जुड़ी है। हरियाली से नवाखानी भाद्रपक्ष की नवमीं तक गांव में गोडोंदी को रखते है। नवाखानी के दुसरे दिन प्रातः से गोडोंदी बनाये हुये सभी बच्चे गांव घर मे घुमकर चावल दाल दान मांगकर एकत्रित करते है। सभी घरों से मिले दान को गोडोंदी देवता के सामने रखकर गोडोंदी देवता की विधि विधान से पूजा अर्चना करते है।  उसके...

मां दंतेश्वरी

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बस्तर की आराध्य मां दंतेश्वरी....! प्राचीन काल से बस्तर शाक्त धर्म का केन्द्र रहा है। यहां आज भी देवी को सर्वोच्च सम्मान दिया जाता है। देवी की पूजा अर्चना के बाद ही शुभ कार्य किये जाते है। देवी दंतेश्वरी का मंदिर दंतेवाड़ा के शंखिनी और डंकिनी नदियों के संगम पर सदियों पूर्व से स्थापित है। देवी दंतेश्वरी बस्तर की आराध्यदेवी है। देवी का मंदिर गर्भगृह अंतराल मंडप सभामंडप और महामंडप में विभक्त है। गर्भगृह प्रस्तर निर्मित है जो कि मूल मंदिर रहा है और काफी प्राचीन भी है। गर्भगृह में देवी दंतेश्वरी की षटभूजी प्रतिमा स्थापित है जो काले ग्रेनाईठ से निर्मित है। आगे का हिस्सा बाद में परवर्ती चालुक्य काकतीय शासकों के समय निर्मित माना जाता है। काष्ठ का बना महामंडप बस्तर की महारानी प्रफुल्लकुमारी देवी के समय निर्मित है। काष्ठ मंडप के कारण मंदिर के सामने के तीन अन्य प्रस्तर मंदिर उसके अंदर आ गये है जो कि भैरव और शिव को समर्पित है मंदिर के बाहर गरूड़ स्तंभ स्थापित है। सभामंडप में गणेश भगवान की भव्य प्रतिमा स्थापित है। इसके अतिरिक्त मंदिर में कार्तिकेय दुर्गा विष्णु भैरव काली शिव पार्वती आदि देवी देवताओं ...

सत्तीगुड़ा

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मलकानगिरी सत्तीगुड़ा डेम.....! वैसे तो मलकानगिरी ओडिसा का सीमावर्ती नगर है। दक्षिण बस्तर सुकमा से इसकी दुरी मात्र 30 किलोमीटर ही है। शबरी नदी के उस पार ओडिसा में मलकानगिरी नगर है।  शबरी पार करते ही ओडिया संस्कृति दिखनी प्रारंभ हो जाती है। ग्राम खेत नदी तालाब पहाड़ सभी में ओडिसा संस्कृति साफ साफ झलकती है। मलकानगिरी में वैसे तो बहुत से टुरिस्ट स्पाट है। ओडिसा शैली में निर्मित बहुत से भव्य मंदिर है।  किन्तु बस्तर सुकमा दंतेवाड़ा वालों का मलकानगिरी जाने का मुख्य उद्देश्य मलकानगिरी का सत्तीगुड़ा बांध देखना होता है। सत्तीगुड़ा का डेम सुकमा वासियों के लिये पसंदीदा पिकनिक स्थल है। सत्तीगुड़ा डेम एक छोटा सा कृत्रिम बांध है जो कि मलकानगिरी से 08 किलोमीटर की दुरी पर है।  यहां के दृश्य बेहद ही खुबसूरत है। आसपास की उंची पहाड़ियां और नीले नभ में विचरते श्वेत बादलों की परछाई बांध के जल में देखने का आनंद ही कुछ और है। हालांकि बांध ज्यादा बड़ा तो नहीं है फिर भी यह बेहतर पिकनिक स्थल है। परिवार सहित घुमने के लिये सुकमा के पास मलकानगिरी का सत्तीगुड़ा डेम एक आदर्श स्थल है।  ......ओम सोनी। 

काछिनगादी परंपरा

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काछिनगादी परंपरा से दशहरे की शुरूआत......! बस्तर का दशहरा अपने विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों एवं रस्मों के कारण देश विदेश में प्रसिद्ध है। बस्तर दशहरा भारत का ऐसा दशहरा है जिसमें रावण दहन ना करके रथ खींचने की परंपरा का निर्वहन किया जाता है। यह दशहरा विश्व का सबसे लंबा चलने वाला दशहरा है। कुल 75 दिन तक दशहरा के विभिन्न रस्मों -परंपराओं का आयोजन किया जाता है।  पाटजात्रा नामक रस्म से बस्तर दशहरा की शुरूआत हो जाती है। पाटजात्रा के बाद डेरी गड़ाई एक प्रमुख रस्म है जिसमें काष्ठ रथों का निर्माण कार्य प्रारंभ किया जाता है। डेरी गड़ाई के बाद सबसे महत्वपूर्ण रस्म है काछिन गादी रस्म। प्रत्येक वर्ष नवरात्रि से पूर्व आश्विन मास की अमावस्या के दिन काछिनगादी की रस्म निभाई जाती है। काछिनगादी रस्म के निर्वहन के बाद ही दस दिवसीय दशहरा की औपचारिक शुरूआत हो जाती है।  काछिनगादी का अर्थ है काछिन देवी का गद्दी देना। काछिन देवी की गद्दी कांटेदार होती है। कांटेदार झुले की गद्दी पर काछिनदेवी विराजित होती है। काछिनदेवी का रण देवी भी कहते है। काछिनदेवी बस्तर अंचल के मिरगानों (हरिजन)की देवी है। बस्तर दशहरा...