मां दंतेश्वरी

बस्तर की आराध्य मां दंतेश्वरी....!

प्राचीन काल से बस्तर शाक्त धर्म का केन्द्र रहा है। यहां आज भी देवी को सर्वोच्च सम्मान दिया जाता है। देवी की पूजा अर्चना के बाद ही शुभ कार्य किये जाते है। देवी दंतेश्वरी का मंदिर दंतेवाड़ा के शंखिनी और डंकिनी नदियों के संगम पर सदियों पूर्व से स्थापित है। देवी दंतेश्वरी बस्तर की आराध्यदेवी है। देवी का मंदिर गर्भगृह अंतराल मंडप सभामंडप और महामंडप में विभक्त है। गर्भगृह प्रस्तर निर्मित है जो कि मूल मंदिर रहा है और काफी प्राचीन भी है।

गर्भगृह में देवी दंतेश्वरी की षटभूजी प्रतिमा स्थापित है जो काले ग्रेनाईठ से निर्मित है। आगे का हिस्सा बाद में परवर्ती चालुक्य काकतीय शासकों के समय निर्मित माना जाता है। काष्ठ का बना महामंडप बस्तर की महारानी प्रफुल्लकुमारी देवी के समय निर्मित है। काष्ठ मंडप के कारण मंदिर के सामने के तीन अन्य प्रस्तर मंदिर उसके अंदर आ गये है जो कि भैरव और शिव को समर्पित है
मंदिर के बाहर गरूड़ स्तंभ स्थापित है। सभामंडप में गणेश भगवान की भव्य प्रतिमा स्थापित है। इसके अतिरिक्त मंदिर में कार्तिकेय दुर्गा विष्णु भैरव काली शिव पार्वती आदि देवी देवताओं की 50 से अधिक प्रतिमायें स्थापित है। मंदिर में प्रवेश करने हेतु कुल 4 दरवाजों से होकर गुजरना पड़ता है। दुसरे दरवाजे से ही गर्भगृह में स्थापित देवी दंतेश्वरी के दर्शन हो जाते है। देवी दर्शन के लिये धोती पहन कर मंदिर में प्रवेश करना अनिवार्य है। टेंपल कमेटी के द्वारा वहां धोती उपलब्ध रहती है।
मंदिर में नागयुगीन एवं काकतीय चालुक्यों के प्राचीन शिलालेख भी रखे हुये है। देवी दंतेश्वरी के मंदिर के पास ही देवी मावली का मंदिर भी बना हुआ है। देवी मावली को भुनेश्वरी देवी के मंदिर के रूप में जाना जाता है। इस मंदिर के गर्भगृह में महिषासुर मर्दिनी की प्रतिमा स्थापित है। इसके अतिरिक्त नरसिंह भैरव गणेश शिव आदि देवताओं की प्रतिमायें भी स्थापित है।
मंदिर के पीछे ही शंखिनी और डंकिनी नदियों का संगम है। संगम के उस पार भैरव बाबा का मंदिर है। भैरव बाबा के दर्शन के बिना देवी दर्शन अधुरा माना जाता है। भैरव मंदिर पास ही है।

देवी दंतेश्वरी के प्रति लोगों में अपार श्रद्धा है और यह श्रद्धा आज से नहीं हजारों सालों से है। देवी दंतेश्वरी नाग युग एवं उसके बाद चालुक्य काकतीय राजवंश की कुल देवी भी है। बस्तर का प्रत्येक सांस्कृतिक कार्यक्रम चाहे फाल्गुन मेला या बस्तर दशहरा हो सभी देवी की उपस्थिति में ही निर्विघ्न संपन्न किये जाते है। देवी दंतेश्वरी मंदिर को 52 वां शक्तिपीठ भी माना जाता है।

ऐसी मान्यता है कि देवी दंतेश्वरी का दांत यहां गिरा था जिसके कारण यह स्थान दंतेवाड़ा और देवी दंतेश्वरी के नाम से जानी गई । यहां एक अन्य किंवदंती भी प्रचलित है कि एक दंतकथा के मुताबिकराजा अन्नमदेव को उनकी कुल देवी ने उन्हें दर्शन देकर कहा कि वे जहां तक जाएंगे वहां तक उनका राज्य होगा और स्वयं देवी उनके पीछे चलेगी, लेकिन राजा पीछे मुड़कर नहीं देखें। वरदान के अनुसार राजा ने वारंगल के गोदावरी के तट से उत्तर की ओर अपनी यात्रा प्रारंभ की । राजा देवी के पायल के घुँघरूओं से उनके साथ होने का अनुमान लगा कर आगे बढ़ता गया ।
राजिम त्रिवेणी पर पैरी नदी तट की रेत पर देवी के पैर पर घुंघरुओं की आवाज रेत में दब जाने के कारण बंद हो गई तो राजा ने पीछे मुड़कर देखा तो देवी अंर्तध्यान हो गई बाद में राजा ने शंखिनी और डंकिनी के संगम पर देवी का मंदिर बनवाया।

प्रत्येक वर्ष नवरात्र में देवी दर्शन के लिये लोग दो सौ किलोमीटर दुर से भी पैदल चलकर आते है। नवरात्र में दंतेवाड़ा में बेहद भक्तिमय वातावरण रहता है। मार्गो में पदयात्री श्रद्धालुओं के लिये रूकने एवं खाने पीने की भी व्यवस्था रहती है। बस्तर दशहरा में देवी की डोली प्रत्येक वर्ष जगदलपुर जाती है। जगदलपुर में दशहरे में रथ पर देवी का प्रतीक छत्र को स्थापित कर रथों की परिक्रमा की जाती है।
फाल्गुन के समय देवी के सम्मान में फाल्गुन मेले का आयोजन किया जाता है। यह बस्तर का सबसे लंबा मेला है जो कुल 45 दिनों तक चलता है। मेले में भाग लेने के लिये बस्तर एवं आसपास के प्रांतों के पांच सौ से अधिक देवी देवता आते है।
हजारों साल से बस्तर शाक्त धर्म का केन्द्र था और आज भी बस्तर देवी शक्तियों की ही बस्तर है। देवी के आर्शीवाद से बस्तर आज प्राकृतिक रूप से संपन्न है और धीरे धीरे पुनः शांति का टापू बनने की ओर अग्रसर है।


दंतेवाड़ा छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से 400 किलोमीटर की दुरी पर दक्षिण में स्थित है। जगदलपुर से यह रेल सेवा से भी जुड़ा है। हवाई रेल और सड़क मार्ग से दंतेवाड़ा पहुंच सकते है।
सभी मित्रों को नवरात्रि की हार्दिक मंगलकामनाये जय माता दी।
Om Soni !

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