ढोलकल पर विराजे गणेश

ढोलकल पर विराजे गणे
ओम सोनी, 
       
            बैलाडिला की पहाड़ियों की पहचान पुरी दुनिया में इसके गर्भ में पाये जाने वाले लौह अयस्क के कारण है। यहां का लौह अयस्क सर्वाधिक षुद्ध एवं उच्च कोटि का माना जाता है। बैलाडिला की सबसे उंची चोटी नंदीराज की चोटी है। बैल के डिले के आकार की चोटी के कारण इन पहाडियों को बैलाडिला की पहाडी के नाम से प्रसिद्ध है। ये पहाडिया लौह अयस्क से परिपूर्ण तो है साथ इन पहाड़ियों में बस्तर का अनदेखा इतिहास छिपा पड़ा है। इन पहाड़ियो में बहुत सी ऐतिहासिक प्रतिमायें बिखरी पड़ी है जो इंतजार में है दुनिया के सामने आने के लिये।


          ढोलकल हां एक ऐसा नाम जो अब बहूत ही प्रसिद्ध हो चुका हैं। जो कभी गुमनाम था किसी कोने में। आज यह ढोलकल पुरी दुनिया के सामने है। बैलाडिला की एक उंची चोटी है ढोलकल। ढोलकल आज पुरी दुनिया में जाना जा रहा है अपने अप्रतिम मनमोहक लुभावने वन एवं प्राकृतिक दृष्य और उस चोटी में विराजित प्रथम वंदनीय गणेषजी की प्रतिमा के कारण।


          मैं बहुत पहले से ही ढोलकल के बारे में जानता था जब मैं आठवी में था अर्थात 2005 से ही मुझे इसकी जानकारी थी। मेरा दोस्त ढोलकल के पास मासोडी गांव का था। उसने बताया था मुझे ढोलकल के बारे मे। बह कई बार जा चुका था ढोलकल। उस वक्त ढोलकल बाहरी दुनिया के नजर में नही आया था। मैंने भी दो बार कोषिष की थी ढोलकल जाने की पर सफल नही हो पाया। 2012 में कुछ स्थानीय पत्रकारों ने इस ढोलकल को दुनिया के सामने लाया था। उंची पर्वत चोटी में विराजित गणेष जी की प्रतिमा की छायाचित्र छा गयी थी।  लगभग हर जगह इसकी चर्चाये होने लगी थी। मैं मई 2015 में पहली बार यहां गया था।

         ढोलकल नामक बैलाडीला की चोटी में विराजित गणेषजी की प्रतिमा के बारे में हमे सबसे पहले अंग्रेज अधिकारी डा कु्रकषेक की रिपोर्ट से पता चलता है। 1934 -35 में भारतीय भू गर्भ सर्वेक्षण के वैज्ञानिक डा कु्रकषेक ने बैलाडिला के पहाड़ियो में लौह अयस्क के सर्वे हेतु एक जियोलाजिकल रिपोर्ट आफ साउथ बस्तर नाम की रिपोर्ट तैयार की थी। उन्हेाने चैदह पहाड़ियों का सर्वे कर नक्षा तैयार किया था। उस रिपोर्ट में सबसे पहले बैलाडिला के पहाड़ियो की एक चोटी में गणेष की छः फीट की प्रतिमा के बारे में लिखा था। ढोलकल दो समानंतर पहाड़ियां है जिनका आकार एक खड़े ढोल की तरह है। एक चोटी पर गणेष की छः फीट उंची प्रतिमा स्थापित है। वहीं दुसरी चोटी को सूर्य मंदिर के रूप में जिक्र किया था जहां अब सिर्फ अवषेश मात्र है।
        
        बैलाडिला की एक उंची चोटी है जिसका आकार ढोलनुमा है। गोंडी में पत्थर को कल कहा जाता है इसलिये इस चोटी को स्थानीय आदिवासी ढोलकल के नाम से पुकारते है। दरअसल पहाडी से एक बडी सी गोलाकार चटटान लगी हुई। यह चटटान लगभग 25 फीट की है तथा बीच से दो हिस्सों में है। इस ढोलनुमा चटटान के उपर विघ्नहर्ता प्रथम पूजनीय श्री गणेषजी की प्रतिमा कई सैकड़ों  सालों से यहां स्थापित है। इस ढोलनुमा चटटान में 6 से 7 लोगों की बैटने लायक जगह है। गणेष जी की प्रतिमा वास्तव में सिर्फ तीन फीट ही उंची है। यह प्रतिमा एक चैकोर प्रस्तर पर निर्मित है। काले पत्थर से निर्मित गणेषजी की यह प्रतिमा ललितासन में है। सिर पर मोर मुकुट धारण किये है। चर्तुभुजी गणेष जी के दाहिने उपर वाले हाथ में फरसा धारण किये तथा नीचे वाले हाथ वरदमु्रदा में माला धारण किये है। बायें हाथ में उपर की ओर एक टूटा हुआ दांत प्रदर्षित है वही नीचे वाले हाथ में मोदकों से भरा पात्र धारण किये है। माथे में , हाथों में , गले में, पैरों में आभूशण धारण किये    हुये है। तन पर जनेउ के रूप में जंजीर धारण किये हुये। पेट में नाग का अंकन किये हुये जिसके आधार पर इस प्रतिमा को नागवंषी काल में निर्मित मानते है।

        नागवंषियों ने 9 सदी से 14 वी सदी तक बस्तर के भू भाग पर षासन किया है।  इतिहासकार इस प्रतिमा का निर्माण काल 10-11 वी सदी में मानते है। वास्तव में उस समय इस चटटान पर मंदिर निर्माण की योजना थी।  आज जिन प्रस्तरों के सहारे गणेषजी की प्रतिमा स्थापित है वे प्रस्तर उस छोटे से मंदिर की दीवारे में प्रयुक्त थे जो वहां बनने वाला था। इन चैड़े समतल प्रस्तरों को को छेदकर लकड़ी या अन्य किसी के द्वारा आपस में जोड़ा गया था। समय के साथ जोड़ने वाली लकड़ी सड़ गई और सारे प्रस्तर बिखर कर नीचे गिर गये। कुछ प्रस्तर ही षेश है जिनके सहारे प्रतिमा अब भी स्थापित है। मंदिर के उपर लगने वाली छत सामने के पहाड़ी पर रखी हुई है। यह समकोण काटी हुई चैकोर लंबे प्रस्तरो से निर्मित है। जो कि आज भी वही है। 
         ढोलकल पहाडी़ के नीचे एक पगडंडी बीजापुर जिले के मिरतुर ग्राम की ओर जाती है उस मार्ग में क्षतिग्रस्त जलहरी एवं आवासीय संरचना प्राप्त हुये जिसे स्थानीय लोग बरहागुड़ा कहते है। यहां आसपास के ग्रामों जैसे पंडेवार , भोगाम, कंवलनार, केषापुर आदि ग्रामो में ढोलकल से जुड़े कुछ मिथक मिलते है जैसे यहां एक देवी थी जो पहाड़ में खोहनुमा जगह में रहती थी। वह डमरू बजाकर गणेषजी की पूजा करती थी। कई सालो तक यहां से डमरू की आवाजे सुनाई देती रही है। इस कारण ग्रामीण इस षिखर को ढोलमेटटा कहते है जो बाद में ढोलकल के रूप में जाना जाने लगा । पहाड़ी की ढलान में देवी की नग्न प्रतिमा स्थापित थी जो बाद में चोरी हो गई।

       बैलाडिला की पहाडियां लौह अयस्क एवं अन्य खनिजों से तो संपन्न है परन्तु ये विविध वृक्षों एवं पौधों से भी संपन्न है। इन पहाडियों पर सल्फी नामक वृक्ष बहुतायत में पाये जाते है। बस्तर के स्थानीय आदिवासी सल्फी वृक्ष के रस को हल्के मादक पेय पदार्थ के रूप में प्रयोग करते है। ढोलकल के पहाडियो में भी सल्फी के बहुत से वृक्ष थे इन वृक्षों से रस प्राप्ति के लिये ग्रामीण इन पहाड़ो मे जाते थे जिसके कारण उन्हे गणेषजी की प्रतिमा देखने को मिली। इस प्रकार आसपास के गांव वालो को इस प्रतिमा के बारें में जानकारी प्राप्त हुई। 
       पास ही एक दुसरी चोटी है जिस पर कभी सूर्यदेव की प्रतिमा स्थापित थी। कहते है उस चोटी पर सर्वप्रथम सूर्य की किरणे पड़ने के कारण यहां पर सूर्यदेव की प्रतिमा स्थापित की गई थी। वर्तमान में यह प्रतिमा कई साल पहले वहां से चोरी हो चुकी है। अब बस वहां पत्थरों को ढेर पड़ा है। यहां पर और भी प्रतिमायें भी स्थापित थी जैसे षिव , पार्वती, कृश्ण। ये प्रतिमा भी आसानी से पहुंच होने के कारण चुरा ली गई है। गणेषजी की प्रतिमा के पास आसानी से नही पहुंचा जा सकता हैं इस कारण यह प्रतिमा आज वहां सुरक्षित है। न हीं तो यह प्रतिमा भी चोरी हो गई होती देखने को सिर्फ बिखरे अवषेश होते है एवं एक रिपार्ट होती जिसमें छः फीट के गणेषजी की जिक्र होता जिसे कभी देखा ही न गया था। और न ही देखा था उस अंग्र्रेज अधिकारी ने भी।
       जी जेम्स कु्रकषेक ने जब यहां बैलाडिला के पहाड़ियों का सर्वे किया तब उन्होने अपने रिपोर्ट में गणेषजी के छः फीट उंची प्रतिमा का जिक्र किया था। दरअसल कु्रकषेक ने गा्रमीणों के कथन अनुसार प्रतिमा को छः फीट का बताया जबकि वास्तव में प्रतिमा सिर्फ तीन फीट की ही है। उन्होने प्रतिमा को स्वयं नही देखा था। आज भी कई लोग उस रिपोर्ट एवं सोषल मीडिया में फैले हुए ढोलकल के बारे में वर्णन के अनुसार उस प्रतिमा को छः फीट की ही मानते हैं जबकि प्रतिमा महज 3 फीट की ही है।
        गणेषजी की प्रतिमा लगभग 250 से 300 मीटर की उंची पहाडी चोटी में स्थापित है। इसे प्रदेष में सर्वाधिक उंचाई पर गणेषजी की प्रतिमा स्थापित होने का गौरव प्राप्त है। पहाडी की चोटी से सामने देखने पर दुर दुर तक फैला जंगल ही नजर आता है। जहां तक नजरे जायेंगी वहां तक सिर्फ और सिर्फ घना जंगल ही दिखाई देता है। वहां से गणेषजी की प्रतिमा के दर्षन करते है तब ऐसा लगता है इस संसार में जहां सिर्फ चहुं ओर हरियाली है , उपर खुला नीला आसमान है , सफेद बादल चारों तरफ खुले आसमान में बिखरे पड़े है गणेषजी उस ढोलनुमा सिंहासन में सबसे उंचाई पर विराजित है और देवता उपर से उन पर पुश्प की वर्शा कर रहे है। मैंने मई 2015 में यहां की यात्रा की थी। उस सूखे मौसम में चारो तरफ हरियाली थी। गणेषजी इतनी उंचाई पर थे उनसे नीचे तो सफेद बादल विचरण कर रहे थे। बहुत तेजी से हवा चल रही थी। सुखे पत्ते चारो तरफ उड़ रहे थे। बहुत ही सुंदर दृष्य था। 
        कुछ लोग इस क्षेत्र को गणेषजी एवं परषुराम के बीच हुये युद्ध से जोड़कर भी देखते है। एक बार परषुराम जी षिवजी के पास मिलने गये थे। गणेषजी षिवजी के कक्ष का पहरा दे रहे थे। गणेषजी ने परषुरामजी को षिवजी से मिलने नही दिया तब परषुरामजी ने अपने फरसे से गणेषजी का एक दांत काट दिया जिसके कारण गणेष जी एकदंत कहलायें। गणेषजी की प्रतिमा में भी एक हाथ में एक दंत प्रदर्षित है। इस क्षेत्र में कैलाष गुफा होने का भी दावा किया जाता है। परन्तु आज तक किसी ने भी देखा नहीं। बहुत घने घने जंगलों से ढंकी पहाड़ियां है। संभवत गुफा कभी मिल ही जाये। पास ही फरसपाल नामक ग्राम भी परषुराम के फरसे के कारण फरसपाल के नाम से जाना जाता है।


         यहां तक पहुंचने के लिये सबसे पहले जिला मुख्यालय दंतेवाड़ा से केषापुर ग्राम पहुंचना होता है। वहां से लगभग दो घंटे की पैदल चढाई करके ढोलकल पहंुचा जा सकता है। लगभग 6से 7 किलोमीटर की घुमावदार चढाई करके नंगे एवं चिकने काले पत्थरों से बनी ढोलकल चोटी पर पहुंच कर गणेषजी के दर्षन करना एक बहुत ही सुखद अनुभव है। बिना किसी स्थानीय जानकार के आप वहां नही जा सकते। मार्ग में एक नाले के उपर छोटा सा परन्तु एक खुबसूरत झरना बहता है। जिसका सौंदर्य वर्शाकाल में देखने लायक होता है। नाले का पानी गर्मियों के मौसम बेहद ठंडा एवं  साफ रहता है। इसका पीने के लिये उपयोग किया जाता रहा है। मार्ग में जगह जगह जंगली सुअरों  के निषान, साही जीव के द्वारा खोदी गई जमीन, एवं उछल कुद करते हुए बंदरों के दर्षन होते है। 
        ढोलकल में गणेषजी की प्रतिमा इतनी उंचाई पर क्यों स्थापित है। यह आज भी रहस्य बना हुआ है। इतिहासकारों के अनुसार दंतेवाड़ा नगर के रक्षक के रूप में नागवंषी षासकोे ने गणेषजी को उंचाई पर स्थापित किया था। परन्तु अब भी यह एक रहस्य है जिसे सबके सामने लाना है। ढोलकल के सामने चारों ओर घने जंगल हैं इन जंगलों में जाने की किसी का भी साहस नही होता है। ये जंगल बहुत से पुरातात्चिक महत्व की वस्तुयें छिपाये हुये। समय है उन ऐतिहासिक स्थलो को बाहर लाने का जिससे रहस्य उजागर हो इतनी उंचाई पर गणेषजी की प्रतिमा स्थापित करने का। 

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