फागुन मेले की शुरूआत

                             फागुन मेले की शुरूआत !!                                                त्रिशूल स्थापना एवँ आमा मउड रस्म से हूई फाल्गुन मंडई की शुरूआत!!    

                                ओम सोनी, 
                                             
मां दंतेश्वरी मंदिर दंतेवाड़ा में ऐतिहासिक व विश्व प्रसिद्ध फागुन मंडई की शुरूआत बसंत पंचमी के अवसर पर त्रिशूल  की स्थापना के साथ हो गया है। शुद्ध तांबे से निर्मित इस त्रिशूल को मंदिर के समक्ष स्थापित गरूड़ स्तंभ के समीप मन्दिर के पूजारी सभी परगणो के मांझी मुखियो की उपस्तिथी में परंपरानुसार विधि विधान से स्थापित किया जाता  है.


दंतेश्वरी मंदिर के पुजारी हरेंद्र नाथ जिया ने बताया कि कई वर्षो से परंपरानुसार इस शुद्ध तांबे के त्रिशूल स्तंभ की स्थापना की जा रही है। विधिवत त्रिशूल स्थापना रस्म के साथ ही विश्व प्रसिद्ध फागुन मंडई प्रारंभ हो जाती है। उन्होंने बताया कि त्रिशूल को मां भगवती का अस्त्र माना गया है, इसलिए इसे सती के प्रतीक के रूप में भी पूजा जाता है। फागुन मेले की शुरूआत बस्तर के राज़ा पुरूषोत्तम देव के समय हूई थी.


पुजारी हरेंद्र नाथ के मुताबिक प्रतिवर्ष फागुन मंडई की शुरूआत त्रिशूल स्तंभ की स्थापना के साथ होती है, जो मेला संपन्न होने तक मांईजी के मंदिर के समक्ष स्थापित रहता है। मेला के दौरान विभिन्न रस्मों की अदायगी के दौरान यहां पूजा अर्चना की जाती है। त्रिशुल स्थापना की इस रस्म को डेरी गड़ाई कहते हैं।   इसे राजा भैरमदेव ने राजस्थान के जयपुर से बनवाया था. यह त्रिशूल ओर जिस खंब में त्रिशूल की स्थापना की जाती है ये दोनो लगभग ढ़ाई  सौ साल पुराने है.

तांबे के त्रिशूल में दोनो फलक के नीचे भगवती के वाहन सिंह, मध्य में नागदेवता तथा गरूड़ का प्रतीक है। त्रिशूल की स्थापना से के बाद फागुन मेले में शामिल होने के लिये देवी देवताओ को न्यौते भेज जाते है.यह त्रिशूल मन्दिर के समक्ष बसंत पंचमी से लेकर फागुन मेले की समाप्ति तक रहता है. मेला संपन्न होने के पश्चात आमंत्रित देवी-देवताओं की विदाई के दूसरे दिन त्रिशूल खंब को देवी के शयन कक्ष में पुन: रख दिया जाता है।


सायं  को दंतेश्वरी मंदिर से मांईजी का छत्र, जवानों कीे सलामी के बाद पारंपरिक वाद्ययंत्रों के साथ ज़यस्तम्भ चौक तक  ले जाया  जाता है. चौक में मांईजी की छत्र की पूजा अर्चना की जाती है. इस दौरान लोगो द्वारा मांईजी के छत्र को आम के बौर अर्पित किए जाते है । लोग कानो में आम की बौर को खोसकर बसंत आगमन की खुशिया मनाई जाती है.इस रस्म को स्थानीय बोली में आमा मउड़ कहा जाता है। 
बसंत पंचमी  से प्रारंभ होने वाले इस ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक फागुन मेला, फागुन शुक्ल षष्ठी से पूर्णिमा तक होता है.

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