नीलगाय

नीलगाय की यारी......!

बस्तर में जंगलों का दायरा सिमटने एवं पानी के कमी का असर जीवों पर दिखने लगा है। अनुकूल रहवास एवं पानी के अभाव में या तो यह बस्तियों में आ रहे हैं या फिर विलुप्त हो रहे हैं। बस्ती के पास आने पर मौकापरस्त लोग एवं हिंसक कुत्ते इन जीवों को आसानी से शिकार बना रहे है। आये दिन हिरण, चीतल, नीलगाय एवं अन्य छोटे जीवों के बस्तियों के आसपास आने एवं मरने की खबर सुनने को मिल रहीं है।

दोस्तों आज बात करते है नीलगाय की। एक नीलगाय कई दिनों से लगभग एक साल से मद्देड़ क्षेत्र में धुम रहीं है। इस नीलगाय को ग्रामीणों से भरपूर प्रेम एवं खाने पीने की चीजें मिल रही है जिससे इस नील गाय की वहां के ग्रामीणों एवं बच्चों से दोस्ती हो गई है।यह नीलगाय इस गांव में स्वच्छंद विचरण करती है। एक साल पहले से ही यह नीलगाय आकर बस गई। उसे कोई खतरा नहीं है और वह बच्चों के पास आकर बैठ जाती है। बच्चे उसे निहारते-छूते रहते हैं। बच्चों ने उसके गले में लाल कपड़े की माला भी टांग दी है। खाने की बढ़िया बढ़िया चीजें खिलाकर पालतू सा बना दिया है। उस पालतू नील गाय का प्रस्तुत चित्र मेरे तनवीर हुसैन जी ने लिया है। उनके बच्चों ने इस प्यारी सी पालतू नील गाय को संतरे खिलाये, पुचारकर हाथ फेर कर अपनत्व जताया।
बस्तर में एक समय में बहुत अधिक नील गायें पायी जाती थी किन्तु अधिक शिकार एवं संरक्षण के अभाव में अब विलुप्त होने की कगार पर है। अब बचेली, भोपालपटनम, कांगेर घाटी पार्क आदि कुछ जंगली क्षेत्रों में ये नील गाये विचरण करते हुये दिखलाई पड़ती है।
जंगल में एक बार नील गाय से एक बार मेरा भी आमना सामना हो गया था। अचानक मोड़ पर आकर खड़ी गई थी। वह मुझे घुर रही थी। उसकी नजर में मुझे गुस्सा नजर आया जैसे कि वह पुछ रही हो यहां क्या कर रहे हो ? यह मेरा इलाका है। मैने उसकी फोटो निकालने के लिये जेब से मोबाईल निकालने की कोषिष की , उतने में ही दुर जंगल में भाग खड़ी हुई।


नीलगाय ( बोसेलाफस ट्रेगोकैमेलस ) यानी भारतीय कृष्णसार नीलगाय को मुगलकाल में औरंगजेब के जमाने में नीलघोर यानी ब्लू हार्स कहा जाता था। यह हिरण जाति की ही सदस्य है। नीलगाय एक बड़ा और शक्तिशाली जानवर है। कद में नर नीलगाय घोड़े जितना होता है, पर उसके शरीर की बनावट घोड़े के समान संतुलित नहीं होती। नीलगाय दिवाचर (दिन में चलने-फिरने वाला) प्राणी है। वह घास भी चरती है और झाड़ियों के पत्ते भी खाती है। मौका मिलने पर वह फसलों पर भी धावा बोलती है।
अधिक ऊंचाई की डालियों तक पहुंचने के लिए वह अपनी पिछली टांगों पर खड़ी हो जाती है। उसकी सूंघने और देखने की शक्ति अच्छी होती है, परंतु सुनने की क्षमता कमजोर होती है। वह खुले और शुष्क प्रदेशों में रहती है जहां कम ऊंचाई की कंटीली झाड़ियां छितरी पड़ी हों। ऐसे प्रदेशों में उसे परभक्षी दूर से ही दिखाई दे जाते हैं और वह तुरंत भाग खड़ी होती है। ऊबड़-खाबड़ जमीन पर भी वह घोड़े की तरह तेजी से और बिना थके काफी दूर भाग सकती है।
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