डंडारी नृत्य
बस्तर का डंडारी नृत्य......!
बस्तर में आज बहुत से लोकनृत्य विलुप्त होने की कगार पर है। कुछ पर्व त्यौहारों के अवसर पर ऐसे विलुप्त होते नृत्य देखने को मिल जाते है। ऐसा ही एक नृत्य है जो बस्तर की धरती से आज लगभग विलूप्त होने की कगार पर है यह नृत्य है डंडारी नृत्य। दंतेवाड़ा के मारजूम चिकपाल के धुरवा जनजाति के ग्रामीणों ने आज भी इस डंडारी नृत्य को आने वाली पीढ़ी के लिये सहेज कर रखा है। यह नृत्य बहुत हद तक गुजरात के मशहूर डांडिया नृत्य से मेल खाता है। इस नृत्य में बांसूरी की धुन पर नर्तक बांस की खपचियों को टकराकर जो थिरकते है बस दर्शक मंत्रमुग्ध होकर नृत्य को एकटक देखते रह जाते हेै।
डांडिया नृत्य में जहां गोल गोल साबूत छोटी छोटी लकड़ियों से नृत्य किया जाता है। वहीं डंडारी नृत्य में बांस की खपचियों से एक दुसरे से टकराकर ढोलक एवं बांसूरी के साथ जुगलबंदी कर नृत्य किया जाता है। बांस की खपच्चियों को नर्तक स्थानीय धुरवा बोली में तिमि वेदरीए बांसुरी को तिरली के नाम से जानते हैं। तिरली को साध पाना हर किसी के बूते की बात नहीं होती। यही वजह है कि दल में ढोल वादक कलाकारों की तादाद ज्यादा है जबकि इक्के.दुक्के ही तिरली की स्वर लहरियां सुना पाते हैं।
कहीं कही बांस की खपचियों के जगह बारहसिंगा के सींगो का भी उपयोग किया जाता रहा है। नृत्य समूह में एक सीटी वादक रहता है सीटी की आवाज सुनते ही नृत्य करने के तरीको में बदलाव कर मस्ती के साथ नाचना प्रारंभ कर दिया जाता है। यह नृत्य आज लगभग विलूप्त सा हो गया है। दशहरे एवं दंतेवाड़ा के फागुन मेले के अवसर पर डंडारी नृत्य करते हुयेधुरवा आदिवासी दिखलाई पड़ते है। लेख ओम सोनी, मित्रों से निवेदन है कि अधिकतम शेयर करें।
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