मोहर माला

दुर्लभ हो चली मोहर माला.....!

शरीर के अंगो में गला एक ऐसा अंग है जिसमें अलग अलग तरह की कई मालायें पहनी जाती है। आज भी सोने एवं चांदी कई मालायें प्रचलित है।  एक माला ऐसी भी है जो एक समय बेहद प्रचलित थी किन्तु अब इस माला का चलन लगभग समाप्त हो गया है। यह माला सिक्को की माला जिसे गले में पहना जाता है। ग्रामीण अंचलों एवं बस्तर में आदिवासी युवतियां बड़े शौक से सिक्को की यह माला पहना करती थी। इस माला को मोहरी माला या मुहरी माला भी कहा जाता है। 

पहले राजा महाराजाओं के समय सोने या चांदी के सिक्के चला करते थे। मुगलों में शाह आलम द्वितीय ने गाजी मुबारक सिक्का जारी किया था जिसे पुरे देश में अलग अलग सभी राज्यों ने स्वीकार किया था। पुराने सिक्को को मोहर या मुहर कहा जाता था। ग्रामीण महिलायें इन मोहरों की माला बनवाकर पहन लेती थी जिसके कारण सिक्को की इस माला को मोहर माला भी कहा जाता है। 


सिक्के सोने या चांदी के होते थे जिसे गले में माला बनाकर पहना जाता था। सिक्को की माला बनाकर पहनने के पीछे यह तर्क यह है कि आर्थिक परेशानी के समय इन्हे गलाकर धन प्राप्त किया जाता था एवं माला के रूप में ये सुरक्षित भी रहते थे।आज भी कुछ महिलाओं के पास ऐसी मोहर माला देखने को मिल जायेगी। प्रस्तुत चित्र बहन पूनम विश्वकर्मा वासम बीजापुर ने लिया है जिसमें बस्तर की यह महिला सिक्को की माला पहनी हुई है ये सिक्के भारत के आजादी के समय 1947 में जारी किये गये थे। 

आज के समय ये मोहर माला सिर्फ नृत्य एवं आयोजनों में एक औपचारिक श्रृंगार मात्र बनकर रह गया है। ढूंढने से भी ऐसे मालायें अब नहीं मिलती है। बस्तर में पहले आदिवासी युवतियां ऐसे ही मोहरमाला पहना करती थी अब कुछ नृत्य समारोह में ही ये माला पहने हुये दिखाई देती है। ओम सोनी दंतेवाडा......, फोटो सौजन्य पूनम विश्वकर्मा वासम जी बीजापुर हृदय से धन्यवाद इस चित्र के लिये। कापी पेस्ट ना करें, अधिक से अधिक शेयर करें।

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