व्याघ्रराज

नलों के नरसिंह......!

गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त के समय बस्तर महाकांतार कहलाता था। हरिषेण कृत प्रयाग प्रशस्ति में समुद्रगुप्त द्वारा महाकांतार के व्याघ्रराज को परास्त किये जाने की जानकारी श्लोक की इस पंक्ति से प्राप्त होती है -’कौसलक महेंद्र महाकांतार व्याघ्रराज, कौरल (ड) क मंटराज पैष्ठपुरक महेंद्र गिरि।’ अर्थात कौसल के राजा महेन्द्र, और महाकांतार के व्याध्रराज को समुद्रगुप्त ने पराजित किया।
समुद्रगुप्त ने दक्षिणापथ के 12 राज्यों के प्रति ग्रहणमोक्षानुग्रह की नीति अपनायी जिसके तहत इन राजाओं को परास्त इन्हे इनका राज्य वापस लौटा दिया और उन राजाओं ने समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार कर ली। प्रयाग प्रशस्ति में जिस कौसल का नाम आया उसे विद्वानों ने वर्तमान छत्तीसगढ़ क्षेत्र और महाकांतार को बस्तर क्षेत्र माना है।



समुद्रगुप्त का शासन काल 335 से 375 ई तक माना गया है। प्रयाग प्रशस्ति एवं समुद्रगुप्त के राजत्वकाल के आधार पर यह प्रमाणित होता है कि चौथी सदी में बस्तर में नलवंशी शासक व्याध्रराज का शासन था।
नलवंशी शासकों का शासन क्षेत्र उत्तर में राजिम , दक्षिण में गोदावरी इंद्रावती एवं गोदावरी शबरी का संगम, पूर्व में कोरापुट जयपोर एवं दक्षिण में गढ़चिरोली महाराष्ट्र तक विस्तृत था। इतने बड़े क्षेत्र में नलवंशी शासको ने अपनी सत्ता कायम की। चौथी सदी से छठवी सदी तक इन्होने बहुत ही शानदार तरीके से शासन किया। छठवी सदी में दक्षिण से चालुक्यों के आक्रमणों ने नल सत्ता को कमजोर कर दिया और नागो ने बस्तर में घुसपैठ प्रारंभ कर दिया जिसके कारण नलों का राज्य सिकुड़ता चला गया।
छत्तीसगढ़ में राजिम लोचन मंदिर नलकालीन स्थापत्यकला का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है जो कि आठवी सदी के मध्य में बना हुआ है वहीं इसके पूर्व नल राजाओं ने इंटो से मंदिर बनवाये थे जो आज भी बस्तर के कोने कोने में टीलो के रूप में मिलते है। नलों ने शैव , वैष्णव और बौद्ध धर्म को संरक्षण दिया जिसके कारण नलों के टीलो से शिवलिंग, बौद्ध मूर्तिया और विष्णु नरसिंह की प्रतिमायें ही मिलती है। बस्तर में उत्तर एवं मध्य बस्तर क्षेत्र में नलकालीन प्रतिमायें आज भी देखने को मिलती है।
केशकाल में भगवान नरसिंह एवं विष्णु की नलयुगीन प्रतिमायें आज भी उपेक्षित पड़ी है। ये दोनो प्रतिमायें लगभग 1500 वर्ष से अधिक पुरानी प्रतीत होती है। आकार में ये प्रतिमायें तीन फीट से कुछ अधिक बड़ी है। नरसिंह की प्रतिमा तो बेहद ही दुर्लभ है।

भगवान नरसिंह की यह प्रतिमा मुद्राओं के आधार पर योग नरसिंह की प्रतिमा के काफी करीब लगती है। केशकाल क्षेत्र में भगवान नरसिंह की ऐसी और भी प्रतिमायें देखने को मिलती है। भगवान विष्णु की प्रतिमा की बात करे तो चतुर्भुजी विष्णु के हाथ खंडित होने के कारण उनके आयुध के बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता है मात्र शंख ही स्पष्ट दिखाई दे रहा है।
कीरिट मुकूट भी बहुत सादा है जो कि चौरस आकार में बना है। पैरों में पुरी धोती की बजाय सिर्फ घुटने तक ही धोती पहनी हुई जिस पर गमछा बांधा हुआ है। शिल्पकार ने विष्णु प्रतिमा में उस समय के पहनावें का अंकन किया। पंद्रह सौ साल पहले और आज भी बस्तरिया इस प्रकार धुटनों तक धोती पहनता है जिस पर गमछा बांधा हुआ रहता है। ये प्रतिमा बहुत ही दुर्लभ है जिनका संरक्षण किया जाना आवश्यक है। 
........ओम सोनी

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