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Showing posts from November, 2018

दोरला के मकान

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गर्मी के अनुकूल होते है दोरला आदिवासियो के मकान .........! बस्तर में आदिवासियों की विभिन्न जनजातिया निवास करती है। दोरला,गोंड, मुरिया माड़िया भतरा परजा आदि जनजातियों की अपनी सामाजिक एवं सांस्कृतिक विशेषताये ंहै। जो एक दुसरे से अलग करती है। इनके रहन सहन तौर तरीके के अंतर में बस्तर की भौगोलिक स्थिति का भी महत्वपूर्ण योगदान है। बस्तर के दक्षिण क्षेत्र में बीजापुर और सुकमा जिले के सीमावर्ती क्षेत्रों में आदिवासियों की दोरला जनजाति निवास करती है। बीजापुर के उसूर ब्लाक में दोरलाओं की आबादी अधिक है। जैसे जैसे हम दक्षिण की ओर बढ़ते जाते है वैसे वैसे गर्मी बढ़ती जाती है। उत्तर भारत के मुकाबले दक्षिण भारत अधिक गर्म है। गर्मी का यह अंतर मध्य और दक्षिण बस्तर में स्पष्ट तौर पर दिखता है। दक्षिण बस्तर आंध्र तेलंगाना की सीमा से लगे होने के कारण बेहद गर्म क्षेत्र है और इसी सीमावर्ती क्षेत्र में दोरला आदिवासी सदियों से रहते आ रहे है। सैकड़ो सालों से वहां रह रहे दोरला आदिवासियों ने तेज गर्मी से निजात पाने के लिये दोरलाओं ने अपने को उसी के अनुसार ढाल लिया है। शहरी क्षेत्रों में तेज गर्मी और चुभन से बचने के लि...

पैड़ी

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चलन से बाहर पैर की पैड़ी......! बस्तर ही नहीं वरन पुरी दुनिया में धीरे धीरे पुराने आभूषणों का चलन खत्म होता जा रहा है। कुछ ग्रामीण क्षेत्रों में  आज भी पुराने परंपरागत गहनों का चलन कायम है। आज के समय में महिलायें पैरों में फैंसी पायल पहनना पसंद करती है वहीं मध्य बस्तर के कुछ गांवों में आज भी महिलायें पैरों में पुराने दौर की पैड़ी पहनती है।  पैड़ी बेहद मजबूत एवं ठोस चांदी से बनी होती है। पैड़ी बनाने के लिये पुराने समय में महिलायें चांदी के सिक्को को इकटठा करती थी। फिर उन सिक्कों को गलाकर पैड़ी बनायी जाती थी। पैड़ी बनाने के लिये विशेष तरह के सांचे होते थे जिनमें चांदी को गलाकर पैड़ी का आकार दिया जाता था। यह पैड़ी काफी मजबूत होती है। इसे पहनाने के लिये काफी मशक्कत करनी पड़ती है। पैड़ी को पैरों में डालकर इसके जोड़ों को ठोक कर मिलाया जाता था। पैड़ी के जोड़ो को खोलने के लिये भी रस्सी बांध कर  विपरित दिशा में खींचना पड़ता है।  अधिक वजनी और चलन ना होने के कारण आजकल पैड़ी देखने को नहीं मिलती है। लोककलाओं में कलाकारों द्वारा पहनी हुई गिलट की पैड़ी ही आजकल देखने को मिलती है। 

मगरमच्छ

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इंद्रावती के मगरमच्छ.....! जैसे जैसे इंसानों की आबादी बढ़ रही है वैसे वैसे वनों का रकबा घटता जा रहा है जिसके कारण कई जंगली जानवरों के अस्तित्व ही खत्म हो गया है। वनों की तरह नदियां भी प्रदुषित हो गई है जिसके कारण कई जलीय जीवों की पुरी प्रजाति ही दुर्लभ हो ग ई है।  बस्तर की प्राणदायिनी इंद्रावती में भी कई दुर्लभ जलीय जीवों का रहवास है। यह नदी मगरमच्छों के रहवास के लिये बेहद ही आदर्श नदी है। आज भी इंद्रावती में मगरमच्छ पाये जाते है। ठंड के दिनों में ये मगरमच्छ नदी के मध्य बने रेत के टीलों में आराम करते हुये दिखाई पड़ते है। इंद्रावती ओडिसा के कालाहांडी से निकल कर बस्तर में प्रवेश करती है। बस्तर में घने जंगलों से बहते हुये महाराष्ट्र सीमा लगे भोपालपटनम से कुछ दुर ही भद्रकाली के पास गोदावरी में विलीन हो जाती है। इंद्रावती घने जंगलों से होकर बहती है जिसके कारण मगरमच्छों का इंसानों से संपर्क कम ही हो पाता है। इंद्रावती तट के कई  ग्रामों में कभी कभी मगरमच्छ नदी के मध्य बने रेतीले टीलों पर आराम करते दिखाई पड़ते है।  नदी तट के कई गांवों  के पास इंद्रावती के मगरमच्छ तो ग्रामीणों स...

बंजारिन

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मां बंजारिन बास्तानार......! बस्तर के विभिन्न पहाड़ों में भी माता के कई मंदिर हैं, और हर आने जाने वाला यहां दो पल के लिए जरूर रुकता है। इन्ही पहाड़ियों में एक है मां बंजारिन का मंदिर, जो बास्तानार के वनाच्छादित पहाड़ों के मध्य बंजारिन घाट में प्रतिष्ठित है। जिला मुख्यालय से 60 किमी दूर जगदलपुर-बीजापुर राष्ट्रीय राजमार्ग क्र.16 पर पहाड़ियों के बीच बंजारिन घाट है। माता का मंदिर गीदम से 10 किलोमीटर दुर जगदलपुर मार्ग पर है। बंजारिन घाट लगभग 15 किलोमीटर लंबा है। घाटी की उंचाई से दूर बैलाडिला की पहाड़ियों के मनमोहक दृश्य दिखाई पड़ते है।  घाटी के मध्य मां बंजारिन का पुराना मंदिर है। देवी के प्रति क्षेत्र के लोगों में बड़ी आस्था है। चैत्र और क्वांर नवरात्रि में माता की विशेष पूजा होती है। बंजारीघाट के जोखिम भरे रास्ते से गुजरने वाले वाले वाहन चालक निर्विघ्न यात्रा की कामना के साथ इस मंदिर के सामने रुकते हैं और देवी की अर्चना पश्चात ही आगे बढ़ते है। इसी तरह लोग केसकाल बारह भांवर घाट और दरभा के झीरम घाट में रूक कर मां तेलिनसत्ती की पूजा कर आगे बढ़ते हैं। इन देवियों को बस्तर के अलावा बाहर के लोग भी पर...

मुंडा बाजा

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देवी आराधना हेतु मुंडा बाजा.....! आप वाद्ययंत्रों में ढोलक, तबला, बड़ा ढोल, शहनाई, बांसूरी आदि से परिचित होंगे किन्तु बस्तर में बस्तर दशहरा एवं फागून मेले में देवी दंतेश्वरी के आराधना के लिये विशेष प्रकार के वाद्ययंत्र का उपयोग किया जाता है जिसे मुंडा बाजा के नाम से जाना जाता है। जगदलपुर के पास ही पोटानार के वादक दल प्रतिवर्ष बस्तर दशहरा में एवं दंतेवाड़ा के फागुन मेले में देवी दंतेश्वरी के सम्मान में मुंडा बाजा बजाते हुये हल्बी में वंदना करते है। मुंडा बाजा एक बड़े कप की तरह ह ोता है यह बस्तर के जंगलों से प्राप्त सिवना लकड़ी से गहरा कर बनाये गये खोल में बकरे के चमड़े को मढक़र बनाया जाता है। इस बाजे को डिबडिबी बाजा भी कहा जाता है। मुंडा जनजाति के द्वारा बजाये जाने के कारण यह मुंडा बाजा के नाम से ही जाना जाता है। डिबडिबी बाजा ते चालकी राजा यह कहावत बस्तर में सदियों से मशहूर है। बस्तर के राजवंश चालूक्यवंशी थे जिसके कारण कहावत में राजा को चालकी अर्थात चालुक्य वंशी कहा है। पिछले चार सौ वर्षों से इस बाजा की गूंज दशहरे के समय सुनायी पड़ती है। इस समय बस्तर दशहरे में दो टोलियों में बटे हुए मुुुंडा...

फूलपाड़

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अनजाना सा फूलपाड़ जलप्रपात......! दंतेवाड़ा जलप्रपातों का जिला है। यहां छोटे बड़े उंचे लंबे अनेकों झरने है। इन झरनों में पालनार के पास का फूलपाड़ झरना जिले का सबसे उंचा झरनो में से एक है। अनुमान तो यह भी है कि फूलपाड़ दंतेवाड़ा का सबसे उंचा झरना है। इसकी उंचाई 150 फीट तक है।  दंतेवाड़ा के कुआंकोंडा ब्लाक के पालनार ग्राम के समीप ही फूलपाड़ ग्राम है। इस फूलपाड़ ग्राम के पास  ही फूलपाड़ झरना है। यहां जाने के लिये फूलपाड़ तक पक्की सड़क बनी हुई है। फूलपाड़ से दो किलोमीटर तक कच्ची सड़क में दो पहिया या चारपहिया वाहन से यहां पहुंचा जा सकता है।  यह एक बेहतरीन पिकनिक स्थल है। बैलाडीला पर्वतश्रृंखला से निकलती यह नदी फूलपाड़ झरना बनाते हुये सुकमा के पास शबरी नदी में मिल जाती है। फूलपाड़ जलप्रपात में कल कल बहती मधुर धाराये, दुर दुर तक फैली पादप हरितिमा, मन को बड़ा सुकून देती है।  झरने के उपर एवं नीचे जाने के लिये पक्की सीढ़िया बनी हुई है। सामने की छोटी सी पहाड़ी पर पूर्ण झरने को देखने के लिये व्यू र्पाइंट भी बना हुआ है। नीचे उतर कर पूर्ण झरने के देखने से इसकी उंचाई का अहसास होता है। झरने के नीचे घन...