मुंडा बाजा

देवी आराधना हेतु मुंडा बाजा.....!

आप वाद्ययंत्रों में ढोलक, तबला, बड़ा ढोल, शहनाई, बांसूरी आदि से परिचित होंगे किन्तु बस्तर में बस्तर दशहरा एवं फागून मेले में देवी दंतेश्वरी के आराधना के लिये विशेष प्रकार के वाद्ययंत्र का उपयोग किया जाता है जिसे मुंडा बाजा के नाम से जाना जाता है।
जगदलपुर के पास ही पोटानार के वादक दल प्रतिवर्ष बस्तर दशहरा में एवं दंतेवाड़ा के फागुन मेले में देवी दंतेश्वरी के सम्मान में मुंडा बाजा बजाते हुये हल्बी में वंदना करते है। मुंडा बाजा एक बड़े कप की तरह होता है यह बस्तर के जंगलों से प्राप्त सिवना लकड़ी से गहरा कर बनाये गये खोल में बकरे के चमड़े को मढक़र बनाया जाता है।

इस बाजे को डिबडिबी बाजा भी कहा जाता है। मुंडा जनजाति के द्वारा बजाये जाने के कारण यह मुंडा बाजा के नाम से ही जाना जाता है। डिबडिबी बाजा ते चालकी राजा यह कहावत बस्तर में सदियों से मशहूर है।

बस्तर के राजवंश चालूक्यवंशी थे जिसके कारण कहावत में राजा को चालकी अर्थात चालुक्य वंशी कहा है। पिछले चार सौ वर्षों से इस बाजा की गूंज दशहरे के समय सुनायी पड़ती है।

इस समय बस्तर दशहरे में दो टोलियों में बटे हुए मुुुंडा बाजा के समूह हैं जो दशहरा रथ परिचालन के समय देवी आराधना करते हुए अपने बाजे से लोगों का मन मोह लेते हैं।
पोटानार के इन वादक कलाकारों को राजाओं के जमाने में विशेष पूजा.अर्चना करने के लिए उन्हें यह वाद्य यंत्र बजाने के लिए बुलावा मिलता था और वे पूजा आरती के समय इस वाद्य यंत्र को बजाते थे।
मुंडा बाजा के स्वरूप में काफी परिवर्तन आया है।

अभी वर्तमान में सिर्फ दंतेवाड़ा के फागुन मेले में एवं बस्तर दशहरे में देवी दंतेश्वरी के आराधना के समय ही मुंडा बाजा का वादन किया जाता है। 

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