लावा बटेर

लावा बटेर का शिकार......!


धान कटाई कार्य लगभग पूर्ण हो गया है। खेतों में धान के कुछ दाने बिखरे हुये बच जाते है उन दानों को चुगने के लिये  प्रवासी पक्षी जैसे लावा बटेर बड़ी संख्या में आ रहे है। इन पक्षियों को शिकार बस्तर में आम बात है। बटेर भूमि पर रहने वाले जंगली पक्षी हैं। ये ज्यादा लम्बी दूरी तक नहीं उड़ सकते हैं और भूमि पर घोंसले बनाते हैं। इनके स्वादिष्ट माँस के कारण इनका शिकार किया जाता है।



खेतों में धान चुगने पहुंचने वाले इन पक्षियों का शिकार भी लगातार हो रहा है। गुलेल तीर धनुष से शिकार तो हो ही रहा है साथ ही ग्रामीण डंडे में गोंद लगाकर छोड़ देते हैं इस पर बैठते ही बटेर के पैर चिपक जाते हैं। इन्हें ग्रामीण पकड़ लेते हैं। कुछ को मारकर खा लेते हैं और कुछ को बेच भी देते हैं। एक पक्षी की कीमत सौ रुपए तक होती है। 

इन पक्षियों का शिकार करने के सबसे प्रचलित तरीका जाल में पक्षियों को फंसाना होता है। यह जाल मछली पकड़ने वाले जाल से दस गुना से अधिक बड़ा होता है। बांस के बड़े से ढांचे के सहारे जाल बांधा जाता है। जाल के बीच में शिकारी के लिये जाल पकड़ने लायक जगह होती है।

 वह जाल उठाकर खेतों में धुमता है और जाल को जमीन पर पटक देता है जिससे लावा पक्षी जाल में दब कर फंस जाती है। इसके अतिरिक्त शिकरा बाज पक्षी के मदद से भी इन पक्षियों का शिकार किया जाता है। पक्षीविदों के मुताबिक लावा.बटेर स्थानीय नहीं बल्कि प्रवासी पक्षी हैं जो यूरोपीय देशों से यहां आती हैं। 

लावा.बटेर पक्षियों को कॉमन क्वेल कहा जाता है। ये यूरोपीय देशों अल्बानिया साइप्रस हंगरी पुर्तगाल यूक्रेन और स्पेन का मूल पक्षी है। आमतौर पर ठंड के दिनों में धान की कटाई के बाद कुछ दाने खेतों में बच जाते हैं जो इनका भोजन होते हैं। 

यही धान के दाने चुगने वे यहां पहुंचते हैं और शिकारियों द्वारा बिछाए जाने वाले जाल में वे फंस जाते हैं।आईयूसीएन की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक लावा.बटेर या कॉमन क्वेल अब विलुप्त हो रहे पक्षियों में शामिल है। 

विदेशों में बटेर उत्पादन एक विकसित व्यवसाय का रूप ले चुका है। भारत में इसका विकास धीरे.धीरे हो रहा है।  चूजे 6 से 7 सप्ताह में ही अंडे देने लगते हैं। मादा प्रतिवर्ष 250 से 300 अंडे देती है। 80 प्रतिशत से अधिक अंडा उत्पादन 10 सप्ताह में ही शुरू हो जाता है। 

इसके चूजे बाजार में बेचने के लिए चार से पांच सप्ताह में ही तैयार हो जाते हैं। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि बटेर को किसी भी प्रकार के रोग निरोधक टीका लगाने की जरूरत नहीं होती है।

फिलहाल तो बस्तर में इनके संरक्षण के लिये भी उदासीनता ही दिख रही है। 

आलेख ओम सोनी दंतेवाड़ा

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