रथ चुराने की 260 साल पुरानी परंपरा


बस्तर दशहरा मे रथ चुराने की 260 साल पुरानी परंपरा - बाहर रैनी.....!

माईजी की डोली जैसे ही रथ पर सवार होती है, उसके बाद रस्म के हिसाब से रथ चुराने की परंपरा का निर्वहन किया जाता है।  रथ चुराने के लिए किलेपाल, गढ़िया एवं करेकोट परगना के 55 गांवों से 4 हजार से अधिक ग्रामीण यहां पहुंचते है। रातोरात ग्रामीणों ने इस रथ को खींचकर करीब पांच किमी दूर कुम्हड़ाकोट के जंगलों में ले जाते है। इसके बाद रथ को यहां पेड़ों के बीच में छिपा दिया जाता हैं। 


रथ चुराकर ले जाने के दौरान रास्ते भर उनके साथ आंगादेव सहित सैकड़ो देवी-देवता भी साथ रहते है। लाला जगदलपुरी जी अपनी पुस्तक बस्तर और इतिहास और संस्कृति में बाहर रैनी के बारे में कुछ महत्वपूर्ण जानकारियां देते है। उनके अनुसार कुम्हड़ाकोट राजमहलों से लगभग दो मील दूर पड़ता है। 


कुम्हड़ाकोट में राजा देवी को नया अन्न अर्पित कर प्रसाद ग्रहण करते है। बस्तर दशहरे की शाभा यात्रा में कई ऐसे   दृश्य हैं जिनके अपने अलग-अलग आकर्षण हैं और उनसे पर्याप्त लोकरंजन हो जाता है। राजसी तामझाम के तहत बस्तर दशहरे के रथ की प्रत्येक शोभायात्रा में पहले सुसज्जित हाथी घोड़ों की भरमार रहती थी। मावली माता की वह घोड़ी याद आती है जिसे चाँदी के जेवरों से सजाया जाता था। उसके पावों में चाँदी के नूपुर बजते रहते थे और माथे पर चाँदी की झूमर झूलता था। उसकी पीठ के नीचे तक एक ज़रीदार रंगीन साड़ी झिलमिलाती रहती थी। 

विगत दशहरे में एक सुसज्जित घोड़े पर सवार मगारची नगाड़े बजा बजा कर यह संकेत देता चलता था कि पुजारी समेत देवी दन्तेश्वरी के छत्र को रथारूढ़ होने या उतारने में कितना समय और शेष है। पहले भीतर रैनी और बाहिर रैनी के कार्यक्रमों में धनु काँडेया लोगों की धूम मची रहती थी। भतरा जाति के नवयुवक धनुकाँडेया बनते थे। उनकी वह पुष्प सज्जित धारी देह सज्जा देखते ही बनती थी। धनु काँडेया रथ खींचने के लिए आदिवासियों को पकड़ लाने के बहाने उत्सव की शोभा बढ़ाते थे। वे रह-रह कर आवाज़ करते, इधर उधर भागते फिरते नज़र आते थे।

इधर रथ चोरी होने के बाद महाराजा कमलचंद्र भजदेव, राजगुरू नवीन ठाकुर अन्य लोगों के साथ कुम्हडाकोट जाते है। यहां पहले नए फसल के अनाज को ग्रामीणों के साथ पकाने के बाद इसका भोग राजपरिवार के सदस्य करते है। इसके बाद चोरी हुए रथ को वापस लाने के लिए ग्रामीणों को मनाया जाता है।  देर शाम रथ को बस्तर महाराज अपनी अगुवाई में लेकर वापस दंतेश्वरी मंदिर पहुंचते है। रथ को वापस लाने की रस्म को बाहर रैनी रस्म कहा जाता है।

बस्तर दशहरा का रथ प्रतिवर्ष भीतर रैनी की रात चोरी चला जाता है। 500 से ज्यादा ग्रामीण राजमहल के सामने खड़े रथ को चुराकर कोतवाली के सामने से खींचते हुए कुम्हड़ाकोट ले जाते हैं। इतिहासकार बताते हैं कि दशहरा रथ की चोरी पिछले 259 वर्षों से जारी है। बस्तर दशहरा की यह पुरातन परंपरा है कि 50 से 65 किमी दूर बास्तानार- कोड़ेनार क्षेत्र के 33 गांवों से करीब 500 माड़िया आदिवासी दशहरा रथ खींचने जगदलपुर आते हैं।

परिक्रमा पूर्ण होने के बाद रथ को राजमहल के सामने खड़ा कर दिया जाता है। देर रात परंपरानुसार ग्रामीण बिना शोर मचाए रथ को खींचते हुए करीब दो किमी दूर कुम्हड़ाकोट जंगल ले जाते हैं। इसे बोल चाल में रथ चुराना कहते हैं। दूसरे दिन बस्तर राजपरिवार कुम्हड़ाकोट से चुराए गए रथ को वापस राजमहल के सामने लाता है। इस परंपरा को बाहर रैनी कहते हैं। रथ के लौटते ही बस्तर दशहरा के रथ संचालन की रस्म पूर्ण हो जाती है। बस्तर राजाओं की राजधानी जगतूगुड़ा जो अब जगदलपुर के नाम से जाना जाता है, में स्थानांतरित हुई इसलिए माना जाता है कि 259 साल से रथ संचालन हो रहा है। रथ चुराना पर्व की एक मनोरंजक रस्म है। 

आलेख ओम सोनी दंतेवाड़ा बस्तर

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