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Showing posts from September, 2018

डेरी गड़ाई

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बस्तर दशहरा की दुसरी कड़ी - डेरी गड़ाई रस्म......! बस्तर दशहरा में पाटजात्रा के बाद दुसरी सबसे महत्वपूर्ण रस्म है डेरी गड़ाई। बस्तर का दशहरा 75 दिनों तक चलने वाला विश्व का सबसे लंबा दशहरा है। बस्तर दशहरा की शुरूआत पाटजात्रा (11 अगस्त 2018) की रस्म से हो चुकी है। पाटजात्रा के बाद डेरी गड़ाई की रस्म बेहद महत्वपूर्ण रस्म है। जगदलपुर के सिरासार भवन में (22 सितंबर 2018) को माझी चालकी मेंबर मेंबरिन की उपस्थिति में पुरे विधि विधान के साथ डेरी गड़ाई रस्म पूर्ण की गई। डेरी गड़ाई रस्म बिरिं गपाल के ग्रामीण साल की दो शाखा युक्त दस फीट की लकड़ी लाते है जिसे हल्दी का लेप लगाकार प्रतिस्थापित किया जाता है। इसे ही डेरी कहते है। इसकी प्रतिस्थापना ही डेरी गड़ाई कहलाती है। सिरासार भवन में दो स्तंभों के नीचे जमीन खोदकर पहले उसमें अंडा एवं जीवित मोंगरी मछली अर्पित की जाती है। फिर उन गडढो में डेरी को स्थापित किया जाता है। दशहरा की विभिन्न रस्मों मे मोंगरी मछली की बलि दी जाती है जिसकी व्यवस्था समरथ परिवार करता है। वहां उपस्थित महिलाओं ने हल्दी खेलकर खुशियां मनाती है। इस रस्म के बाद बस्तर दशहरा के विशालकाय काष्ठ रथों...

बस्तर पर्यटन

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बस्तर पर्यटन.....! 27 सितंबर विश्व पर्यटन दिवस पर विशेष। आज के समय में पर्यटन उद्योग किसी भी देश या राज्य के आर्थिक स्थिति को मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहा है। कई देशो का नाम दुनिया में सिर्फ पर्यटन के लिये जाना जाता है। हाल के कुछ सालो में भारत में भी पर्यटन उद्योग में अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी हुई। हमारे देश के कई राज्य पर्यटन क्षेत्रों में बेहद ही लोकप्रिय है जहां हर साल विदेशी सैलानी धुमने आते है। छत्तीसगढ़ में पर्यटन उद्योग की अपार संभावना है। छत्तीसगढ़ में बस्तर एक ऐसा क्षेत्र है जहां पर्यटन के लिहाज से असीम संभावनायें है। बस्तर को तो ईश्वर ने स्वर्ग बनाया है। हरी भरी वादियां, उंचे चौड़े झरने, घाटियां, ऐतिहासिक स्थल और आदिवासी संस्कृति बस्तर को पर्यटन क्षेत्र में सर्वोच्च स्थान देती है। माओवादी घटनाओं के कारण लोग बस्तर आने में कतराते थे किन्तु अब समय बदल गया है। अब अन्य राज्यों के पर्यटकों के अलावा विदेशी सैलानी भी बस्तर आने लगे है। बस्तर का चित्रकोट जलप्रपात, तीरथगढ़, कुटूमसर की गुफाये, बारसूर दंतेवाड़ा जैसे स्थानों ने हमेशा पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित किया है। मध्य बस्तर के ब...

चांदी के कड़े

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अब नहीं पहने जाते है चांदी के कड़े....! महिलाओं की तरह पुरूषों को भी गहनों से खासा लगाव रहा है। पुराने दिनों में पुरूष भी महिलाओं की तरह ही सोने चांदी के गहने पहनते थे। जिसका प्रमाण हमें आज भी बस्तर में देखने को मिलता है। यहां के जनजातीय समाज के पुरूषों में महिलाओं की तरह, कान , गले, हाथ, पैर जैसे अंगों में महिलाओं की तरह ही सोने चांदी के आभूषण पहनने की आदिम परंपरा रही है।  पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव के कारण, अब बस्तर के नौजवानों को अपने पूर्वजों की तरह गहनों से कोई खास लगाव नहीं रहा। धीरे धीरे बस्तर से भी पुरूषों द्वारा पहने जाने वाले परंपरागत आभूषण लूप्त होते जा रहे है। किसी खास आयोजन पर ही पुराने बुढ़े बुजुर्ग ही सोने चांदी के गहने पहने हुये दिख जाते है। केशकाल के भंगाराम जातरा में पुरूषों द्वारा पहने जाने वाले गहनों की खोज में बहुत कुछ नया मिला।   यहां मैने कुछ बुजुर्गो के हाथों में चांदी के कड़े देखे जो कि पुराने चांदी के सिक्को से बने हुये थे। ये साधारण कड़े शुद्ध ठोस चांदी से बने हुये है। आजकल के लड़को में भी कड़े पहनने का फैशन है लेकिन सिर्फ तांबे या गिलट के ही। चांदी क...

आंगादेव

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आंगादेव पर जड़े है ब्रिटिशयुगीन सिक्के.....! बस्तर के जनजातीय समाज में विभिन्न देवी देवताओं के प्रतीक के रूप में आंगादेव , पाटदेव बनाने की प्रथा है। आंगादेव कटहल की लकड़ी से बनाया जाता है। जिसमें आठ हाथ लंबी दो गोलाकार लकड़ियों पर दोनो सिरों पर चार हाथ लंबी गोलाकार लकड़ी से बांधा जाता है। इन्हे कभी भी सीधे जमीन पर नहीं रखा जाता। इनके रखने का विशेष स्थान और चौकी होती है। ग्रामीण आंगादेव और पाटदेव को जागृत मानते हैं और इन्हे हर संभव खुश रखने का प्रयास करते हैं। किसी गांव या किसी के  घर में आपत्ति आने पर बाकायदा इन्हे आमंत्रित किया जाता है। चार सेवादार इन्हे कंधों पर रख नियत स्थान तक पहुंचाते हैं। आंगादेव का मुख्य पुजारी जो भी निर्णय लेता है या फैसला सुनाता है। वह सर्वमान्य होता है।आंगादेव पर चांदी के नाग, चांदी के आभूषण जड़े होते हैं। पुराने सिक्कों को भी इसमें टांक कर इसे सुन्दर दिखाने का प्रयास किया जाता है। देवी देवताओं को सोने चांदी के आभूषण भेंट करने की पुरानी परंपरा है। अब वनांचल में रहने वाले ग्रामीण इतने सक्षम नहीं रहे कि वे सोने चांदी की श्रृंगार सामग्री भेंट कर सकें, इसलिए वे अप...

लिंगई माता

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लिंगई माता- यहाँ लिंग के रूप में होती है देवी की पूजा.....! छत्तीसगढ़ के अलोर ग्राम में देवी का एक अनोखा मन्दिर विद्यमान है। इस मन्दिर में देवी की पूजा लिंग के रूप में होती है। या ऐसा कहें कि यह ऐसा शिवलिंग है जो देवी के रूप में पूजा जाता है। इस मंदिर में देवी की पूजा लिंग रूप में क्यों होती इसके पीछे मान्यता यह है कि इस लिंग में शिव और शक्ति दोनों समाहित हैं। यहाँ शिव और शक्ति की पूजा सम्मिलित रूप से लिंग स्वरूप में होती है। इसीलिए इस देवी को लिंगेश्वरी माता या लिंगई माता कहा जाता है। कोंडागॉव जिले मे फरसगॉव से बड़े डोंगर के तरफ नौ किलोमीटर की दुरी पर अलोर ग्राम से लगभग 2 किमी दूर उत्तर पश्चिम में एक पहाड़ी है। इस पहाड़ी को लिंगई गट्टा कहा जाता है। इस छोटी पहाड़ी के ऊपर विस्तृत फैला हुआ चट्टान के उपर एक विशाल पत्थर है। इस पत्थर की संरचना भीतर से कटोरानुमा है। इस मंदिर के दक्षिण दिशा में एक सुरंग है जो इस गुफा का प्रवेश द्वार है। इस सुरंग का द्वार इतना छोटा है कि बैठकर या लेटकर ही यहां प्रवेश किया जा सकता है। गुफा के अंदर 25 से 30 आदमी बैठ सकते हैं। गुफा के अंदर चट्टान के बीचों-बीच निकला शि...

व्याघ्रराज

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नलों के नरसिंह......! गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त के समय बस्तर महाकांतार कहलाता था। हरिषेण कृत प्रयाग प्रशस्ति में समुद्रगुप्त द्वारा महाकांतार के व्याघ्रराज को परास्त किये जाने की जानकारी श्लोक की इस पंक्ति से प्राप्त होती है -’कौसलक महेंद्र महाकांतार व्याघ्रराज, कौरल (ड) क मंटराज पैष्ठपुरक महेंद्र गिरि।’ अर्थात कौसल के राजा महेन्द्र, और महाकांतार के व्याध्रराज को समुद्रगुप्त ने पराजित किया। समुद्रगुप्त ने दक्षिणापथ के 12 राज्यों के प्रति ग्रहणमोक्षानुग्रह की नीति अपनायी जिसके  तहत इन राजाओं को परास्त इन्हे इनका राज्य वापस लौटा दिया और उन राजाओं ने समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार कर ली। प्रयाग प्रशस्ति में जिस कौसल का नाम आया उसे विद्वानों ने वर्तमान छत्तीसगढ़ क्षेत्र और महाकांतार को बस्तर क्षेत्र माना है। समुद्रगुप्त का शासन काल 335 से 375 ई तक माना गया है। प्रयाग प्रशस्ति एवं समुद्रगुप्त के राजत्वकाल के आधार पर यह प्रमाणित होता है कि चौथी सदी में बस्तर में नलवंशी शासक व्याध्रराज का शासन था। नलवंशी शासकों का शासन क्षेत्र उत्तर में राजिम , दक्षिण में गोदावरी इंद्रावती एवं गोदावरी शबरी क...

आकाश नगर

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बादलों का नगर - आकाश नगर....! बस्तर पूर्णतः पहाड़ी क्षेत्र है जो कि घने वनों से आच्छादित है। इन गगनचूंबी पहाड़ियों के कारण यहां का मौसम वर्ष भर सुहाना रहता है। बस्तर की बैलाडिला पहाड़ी श्रृंखला  अपने शुद्ध लौह अयस्क के लिये पुरे विश्व में मशहूर है। यहां की लौह खदान पुरे एशिया में सबसे बड़ी लौह खदानों में से एक है। बैलाडिला  पर्वत श्रृंखला में नंदीराज की चोटी पुरे बस्तर में पहली एवं छत्तीसगढ़ में दुसरी सबसे उंची चोटी है इसकी उंचाई लगभग 3000 फिट तक है। नंदीराज पर्वत की आकृति बैल के कुबड़ के समान है जिसके कारण इस क्षेत्र को बैलाडिला के नाम से जाना जाता है। 1966 ई में एनएमडीसी ने बचेली और किरन्दुल से लौह अयस्क का खनना प्रारंभ किया था। पहाड़ों पर एनएमडीसी ने कर्मचारियों के रहने के लिये बचेली शहर में पहाड़ के उपर आकाश नगर एवं किरन्दुल में पहाड़ के उपर कैलाश नगर बसाये थे। ये बस्तर के पहले हिल स्टेशन थे। इन हिल स्टेशनों का मौसम बेहद ही सुहावना होता है। यहां समय बिताने का एक अलग ही अनुभव होता है।  बैलाडिला की पुरी पहाड़ियां घने वनों से ढकी हुई है जिसके कारण यहां  साल भर वर्षा होते रहती...

पिसवा

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पिसवा- बैग......! पिसवा कोई खाने पीने की चीज नहीं है और ना ही कोई मनोरंजन की वस्तु। पिसवा बांस से बना एक बैग है। एक झोले की तरह है जिसे कंधे पर लटका कर रखा जाता है। जहां आज नायलोन, चमड़े एवं कपड़े से बने हुये झोले या छोटे बैग का चलन है वही बस्तर के जनजातीय समाज में आज भी यदाकदा बांस से बने पिसवा बैग कंधे पर लटका दिखाई देता है। बांस का आदिवासी जीवन में महत्व इतना अधिक है कि जनजातीय समाज में रोजमर्रा जीवन की अधिकांश उपयोगी वस्तुये बांस से ही बनायी जाती है। यह पिसवा भी बांस की  पतली खपचियों से बना हुआ है जिसे छोटे से बैग के आकार में बनाया गया है। । इस पिसवा बैग में पानी की बोतल, पैन , डायरी आदि उपयोगी वस्तुये रखी जाती है। सदियों से बस्तर के जनजातीय समाज में इस तरह के बांस से बने सामानों का चलन रहा है किन्तु वर्तमान समय में अन्य विकल्पों के कारण पिसवा जैसे अन्य कई उपयोगी वस्तुये अब चलन से बाहर हो गई है। कभी कभार किसी मेले या अन्य आयोजन में किसी के कंधे पर लटका पिसवा दिख जाता है। कल केसकाल के भंगाराम माई के दरबार में मुझे एक व्यक्ति के कंधे पर लटका पिसवा दिखाई दिया तो कुछ तस्वीरे ले ली। आ...

सुबई जैन मंदिर

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बस्तर में जैन धर्म......! बस्तर में राजभूषण महाराज सोमेश्वर देव (1069 ई से 1110 ई) ने चक्रकोट राज्य में जैन धर्म संरक्षण प्रदान किया था। तत्कालीन समय के चक्रकोट राज्य मेंजैन साधु निवास करते थे। छिंदक नाग राजाओं ने बस्तर में पारसनाथ, नेमिनाथ, आदिनाथ आदि जैन तीर्थंकरों की बहुत सी प्रतिमायें बनवायी थी। कुरूषपाल, बारसूर, नारायणपाल, बोदरा आदि स्थानों में आज भी ये प्रतिमायें देखने को मिलती है। बस्तर के आसपास ओडिसा क्षेत्र में खारवेल के समय से ही जैन धर्म का प्रभाव स्थापित हो गया थ ा परन्तु बस्तर में सिर्फ नागवंशी शासक सोमेश्वर देव ने जैन धर्म को संरक्षण प्रदान किया था। ग्यारहवी सदी से पूर्व की जैन धर्म की कोई भी प्रतिमा या अवशेष बस्तर में प्राप्त नहीं होते है। सोमेश्वरदेव का राज्य कोरापुट एवं जयपोर से आगे तक विस्तृत था। इस क्षेत्र में उसके सामंत चंद्रादित्य का शासन था। इस क्षेत्र में पूर्व से प्रचलित जैन धर्म को सोमेश्वरदेव ने भरपूर संरक्षण एवं सहयोग दिया था। बस्तर के पास जयपोर - कोरापुट क्षेत्र में जैन तीर्थंकरों की पुरानी प्रतिमा एवं जिनालय आज भी सुरक्षित अवस्था मे मिलते है। जयपोर से आगे अ...

पोन्दुम झरना

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अनजाना बस्तर- पोन्दुम झरना......! बस्तर की खोज कभी ना खत्म होने वाली खोज है। बस्तर को जितना जानने की कोशिश करेंगे उतनी नयी जानकारी पाओगे, जितना बस्तर में घुमोगे उतना ही बस्तर की अनजानी जगहों को देखने का मौका मिलेगा। बस्तर में प्रकृति ने झरनो, जंगलो, पुराने मंदिरों, रीति रिवाजों के साथ अपनी अनुपम छटा बिखेरी है।  झरने तो बस्तर में अनगिनत है। इन झरनो ने बस्तर को दुनिया भर में मशहूर किया है। पर्यटकों में बस्तर के झरने देखने की ललक इतनी है कि वे हजारों किलोमीटर दुर से इन्हे देखने आते है।  कुछ झरने आज मशहूर पर्यटन केन्द्र बन गये है और कुछ आज भी पर्यटकों की नजरों से ओझल है। ऐसा ही एक अनजाना सा झरना है पोन्दुम झरना। जिला मुख्यालय दंतेवाड़ा से कटेकल्याण मार्ग पर 08 किलोमीटर की दुरी पोन्दुम नामक छोटा सा ग्राम है।  इस गांव के बाहर ही मुख्य सड़क से दाये तरफ एक कच्चा मार्ग झरने की तरफ जाता है। सड़क से 10 मिनट की पैदल यात्रा के बाद झरने तक पहुंचा जा सकता है। मार्ग मे अत्यंत छोटी सी पहाड़ी है जहां से झरने की मधुर कल कल ध्वनि सुनाई देती है।  यह झरना एक नाले पर है। इसकी उंचाई 50 से 60 फि...