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बस्तर दशहरा

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नारफोड़नी एवं पिरती फारा की रस्म.......! विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरा पर्व में सिरासार चैक में विधि-विधानपूर्वक नारफोड़नी रस्म पूरी की जाती है। इसके तहत कारीगरों के प्रमुख की मौजूदगी में पूजा अर्चना की जाती है। इस मौके पर मोगरी मछली,अंडा व लाइ-चना अर्पित किया जाता है।  साथ ही औजारो की पूजा की जाती है। ।  पूजा विधान के बाद रथ के एक्सल के लिए छेद किए जाने का काम शुरू किया जाता है। विदित हो कि रथ के मध्य एक्सल के लिए किए जाने वाले छेद को नारफोड़नी रस्म कहा जाता है। गौरतलब है कि 75 दिनों तक चलने वाला यह लोकोत्सव पाटजात्रा विधान के साथ शुरू हुआ था। इसके बाद डेरीगड़ाई व बारसी उतारनी की रस्म पूूरी की गई। पिरती फारा बस्तर दशहरा के लिए इस बार चार पहियों वाला रथ सिरहासार के सामने तैयार किया जाता है। इस कार्य में झारा और बेड़ा उमरगांव से पहुंचे करीब 150 कारीगर लगते हैं। पिरती फारा की रस्म में पहले निर्माणाधीन रथ के सामने बकरे की बलि दी जाती हैं।  रथ निर्माण में लगे कारीगरों ने सॉ मिल से चिरान कर लाकर करीब 25 फीट लंबे तथा वजनी फारों को बड़ी सावधानी से ऊपर चढ़ाया जाता है।  बताया जाता है क...

हिड़पाल

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हिड़पाल के भगवान पारसनाथ.....! बस्तर में ग्यारहवी सदी में छिंदक नाग शासक राजभूषण महाराज सोमेश्वर देव ने जैन धर्म को संरक्षण दिया था। उनके शासनकाल में पुरे चक्रकोट राज्य में जैन साधु निवास करते थे। तत्कालीन समय में जैन तीर्थंकरों की बहुत सी प्रतिमायें बस्तर के कोने कोने में स्थापित करवायी गयी थी।  सोमेश्वर देव की राजधानी कुरूषपाल के आसपास आज भी जैन तीर्थंकरों की बहुत सी प्रतिमायें देखने को मिलती है। उप राजधानी बारसूर में भी कुछ प्रतिमायें संग्रहालय में सुरक्षित है।  बारसूर के पास ही हिड़पाल नामक छोटा सा वन ग्राम है। बारसूर से 16 किलोमीटर दुर हिड़पाल ग्राम में भालूनाला के पास भगवान पारसनाथ और सिंह पर सवार माता दुर्गा की प्रतिमा रखी हुई थी। स्थानीय ग्रामीण इन्हे भगवान विष्णु और दुर्गा के रूप में पूजा करते आ रहे है। भगवान विष्णु की प्रतिमा वास्तव में 23 वें जैन तीर्थंकर भगवान पारसनाथ जी की है। प्रतिमा में पीछे की तरफ सात फण युक्त सर्प उकेरा गया है।  ये प्रतिमायें 1982 के आसपास हिड़पाल में कुसुम पेड़ के नीचे रखी हुई थी। पास के गांव वाले इन प्रतिमाओं को उठाकर अपने ग्राम ले जा रहे थे...

तोयर झरना

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बस्तर का अनजाना सा तोयर झरना......! शानदार मनमोहक झरनों से बसी हुई दुनिया कोई है तो वह बस्तर ही है। हर दस किलोमीटर में एक झरना अपनी कलकल ध्वनि से पर्यटक को अपनी ओर आकर्षित करता है। ऐसा ही एक झरना है तोयर जलप्रपात जो कि सिर्फ आवाज से ही अपनी ओर लोगों को खींचता है।  झाड़ियों की झुरमूट से ही इस निर्झर की आवाज कानो तक पहुंचती है। जब झाड़ियो में बनी पगड़डी से आगे बढ़ते है तब इसे झरने के पूर्ण सौंदर्य का दीदार हो पाता है।  50 फीट की उंचाई लिये यह झरना बेहद ही खुबसूरत है। चारो तरफ धने जंगलो से घिरा यह झरना जंगल में मधुर संगीत सुनाता है। अधिक प्रचार प्रसार ना होने के कारण बहुत ही कम लोग इस झरने की सुंदरता से परिचित है।  दंतेवाड़ा से कटेकल्याण फिर थोड़ा आगे परचेली के पास ही तोयनार ग्राम है इस ग्राम में ही तोयर नाले पर बना यह तोयर झरना है। कम उंचाई होने के बावजूद भी बेहद ही मनमोहक है। बस्ती से बेहद लगा हुआ है फिर घनी झाड़ियों के कारण नैसर्गिक सौंदर्य से परिपूर्ण है। झरने के उपर एक छोटी सी गुफा है।  इस झरने को प्रकाश में लाने का श्रेय मेरे मित्र जितेन्द्र नक्का को है। उन्होने ही मुझे ...

गुरू घासीदास और बस्तर

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बस्तर में अहिंसा का संदेश लाये थे गुरू घासीदास......! गुरु घासीदास भारत के छत्तीसगढ़ राज्य की संत परंपरा में सर्वोपरि हैं। बाल्याकाल से ही घासीदास के हृदय में वैराग्य का भाव प्रस्फुटित हो चुका था। समाज में व्याप्त पशुबलि तथा अन्य कुप्रथाओं का ये बचपन से ही विरोध करते रहे। समाज को नई दिशा प्रदान करने में इन्होंने अतुलनीय योगदान दिया था। सत्य से साक्षात्कार करना ही गुरु घासीदास के जीवन का परम लक्ष्य था।  गुरू घासीदास 1756 में रायपुर जिले के गिरौदपुरी में एक गरीब और साधारण परिवार में पैदा हुए थे।उनके पिता का नाम मंहगू दास तथा माता का नाम अमरौतिन था और उनकी धर्मपत्नी का सफुरा था।  संत गुरु घासीदास ने समाज में व्याप्त कुप्रथाओं का बचपन से ही विरोध किया। उन्होंने समाज में व्याप्त छुआछूत की भावना के विरुद्ध  समानता का संदेश दिया। छत्तीसगढ़ राज्य में गुरु घासीदास की जयंती 18 दिसंबर से माह भर व्यापक उत्सव के रूप में समूचे राज्य में पूरी श्रद्धा और उत्साह के साथ मनाई जाती है.  गुरु घासीदास ने समाज के लोगों को सात्विक जीवन जीने की प्रेरणा दी। उन्होंने न सिर्फ सत्य की आराधना की, ब...

ढेकी की आवाज

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अब नहीं गूंजती ढेकी की आवाज.......! आज हम लोगों में से बहुत लोग ढेकी का नाम भी नहीं सुने होगे, और ना ही कभी देखे होंगे कि ढेकी आखिर चीज क्या है?  आज गेहूं पीसने , धान कूटने के लिये बड़ी बड़ी राईस मिले, आटा चक्की मशीने उपलब्ध है। पहले के जमाने में जब ये मशीने नहीं थे तब धान कूटने के लिये लकड़ी से बनी ढेकी का ही सहारा था।  ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग प्रत्येक धर में ढेकी होती थी, ढेकी के लिये अलग से कमरा होता था जिसमें सिर्फ धान कूटने का ही काम किया जाता था। अधिकांशत धरों के बरामदे में किनारे ढेकी को स्थापित किया जाता था।  पैर से ढेकी एक सिरे को दबाया जाता है , तो दुसरे तरफ धान पर ढेकी की चोट पड़ती है और धान कूटने का कार्य परंपरागत तरीके से हो जाता था। ढेकी से कुटे हुये धान में पौष्टिक तत्व भी अधिक मात्रा में रहते है और खाने में भी स्वादिष्ट होता है।   बिना किसी मशीनरी से धान कूटने की यह परंपरागत ढेकी अब देखने को भी नहीं मिलती है और ना ही ढेकी की आवाज अब सुनाई  देती है।  ग्रामीण क्षेत्रो में धान कूटने की मशीनरी दुकान उपलब्ध नहीं होने पर बस्तर में भी आदिवासी ढ...

चर्रे मर्रे झरना

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अंतागढ़ का चर्रे मर्रे झरना..............! बस्तर में हर जगह झरने ही झरने है। बस इन्हे खोजने वाला साहसी पर्यटक की जरूरत है। बस्तर के सातों जिले में कई झरने है। जगदलपुर में चित्रकोट तीरथगढ़ तो दंतेवाड़ा में हांदावाड़ा, फूलपाड़ जैसे बड़े झरने है। नारायणपुर जहां अपनी अबूझमाड़ियां संस्कृति के लिये विश्व भर में प्रसिद्ध है वहीं नारायणपुर प्राकृतिक दृश्यों से भी संपन्न है। नारायणपुर में कई झरने है जो आज भी पर्यटकों की नजरों से ओझल है।  नारायणपुर के प्रसिद्ध जलप्रपातों में एक है  चर्रे मर्रे जलप्रपात। चर्रे मर्रे  नारायणपुर जिले के अंतागढ़-आमाबेड़ा वनमार्ग पर पिंजारिन घाटी में स्थित है ।इस जलप्रपात की खासियत ये है कि यहां का कलकल करता झरना पर्यटकों को साल भर आकर्षित करता है।   उत्तर पश्चिम दिशा में जलप्रपात का गिरता हुआ पानी अलग-अलग कुंडों के रूप में एकत्रित होकर दक्षिण दिशा में लंबा फासला तय कर कोटरी नदी में मिलता है. चर्रे मर्रे  का सुन्दर झरना कांकेर में अन्तागढ़ से 17 किमी की दूरी पर स्थित है। आमाबेड़ा के रास्ते पर एक चर्रे मर्रे नाम का स्थान पड़ता है। यह झरना जोगीधारा नदी...

कौड़ी शिल्प

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लूप्त हो रही बस्तर की कौड़ी शिल्प कला........! आज बस्तर की हस्तशिल्प कलाये दुनिया भर में प्रसिद्ध है। बस्तर की काष्ठकला , घड़वा कला या टेराकोटा से बनी वस्तुये देश विदेश के कई लोगों के घरों की शान बढ़ा रही है। हस्तशिल्प कला के अंतर्गत आज कौड़ी शिल्पकला लगभग विलूप्त सी हो गई है।  चाहे बैगा के कपड़े हो, गौर माड़िया हार्न मुकूट हो या फिर चोली-घाघरा या छोटी टोकरी पर कौड़ी लगाकर उसे सजाने की एवं गूंथने यह परंपरागत कला को अब कोई पूछने वाला भी नही है। परिधान में चोली.घाघरा साड़ी आदि तथा टोकरी अथवा झोले में कौड़ियों को गूंथने की कला को कौड़ी शिल्प कहा जाता है। कौड़ी शिल्प प्राचीन काल से बस्तर में प्रचलित रही है। जब बायसन हार्न माड़िया गौर के सींगों से बना मुकूट पहनता है तो उसके चेहरे के सामने सफेद कौड़ियों की लड़े लटकती दिखाई देती है। मेले जातरा में बैगा रंग बिरंगे परंपरागत कपड़े पहनकर देव आराधना करते है तो कपड़े पर गुंथी हुई कौड़ियों की सफेदी किसी का भी ध्यान आकर्षित कर लेती है।  कौड़ियों से सजी हुई छोटी टोकनी या झोला हर कोई उपयोग करना चाहता है। बाजारों में जब कौड़ी शिल्प युक्त परिधान या चीजें बिकने के ...