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Showing posts from July, 2018

मंगलतराई

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मंगलतराई का बाजार चारामा......! 07 जुलाई को मैं कांकेर के चारामा क्षेत्र में मंगलतराई गांव गया था। मंगलतराई चारामा की घाटियों में बसा वन ग्राम है। बालोद से लगा हुआ क्षेत्र होने के कारण छत्तीसगढ़ और बस्तर की मिली जुली महक इस गांव की फिजा में घुली हुई है। इस गांव में शनिवार को एक छोटा सा बाजार लगता है। छत्तीसगढ़ क्षेत्र के किसी बाजार का यह मेरा पहला अनुभव था। छत्तीसगढ़ क्षेत्र के बाजार पार्ट टाईम जाब की तरह होते है। वहीं बस्तर के बाजार सुबह से लेकर शाम तक चलते है। छत्तीसगढ़ के ग्र ामीण मेले और बस्तर के साप्ताहिक बाजार दोनो एक जैसे भीड़ वाले होते है। 03 से 06 बजे तक तीन घंटे के बाजार में बहुत सी दुकाने लगती है। सब्जियां, मनिहारी, गुड़, तेल, पकवान आदि छोटी मोटी कई दुकाने बाजार में सजती है। बाजार में बिकती वस्तुये सिर्फ उस ग्राम की रसद की पूर्ति करने लायक ही थी। इस बाजार में मैने एक अलग दुकान देखी, ऐसी दुकान मैने बस्तर के बाजारों में कभी नहीं देखी। यह दुकान थी खाने के तेल की। तेल की दुकान बहुत से तेल टीनों से सजी हुई थी। पुरे बाजार में यदि सबसे ज्यादा भीड़ किसी दुकान में थी तो वो दुकान इस तेल वाले...

यादवों की मुद्राये

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बस्तर में देवगिरि के यादवों की मुद्राये......! कुछ दिनों पहले की बात है बस्तर में जिला सुकमा के किन्दरवाड़ा में ग्रामीण को खेत में खुदाई के दौरान सोने के सिक्के मिले थे। वही सप्ताह भर पहले ही मध्य बस्तर में कोंडागांव जिले में केशकाल विकासखंड में कोरकोटी ग्राम में सोने के सिक्के प्राप्त हुये है। कोरकोटी से बेड़मा तक सड़क निर्माण किया जा रहा है। सड़क निर्माण में लगे मजदुरो को ये सिक्के मिले है। इन सिक्को को सोने एवं चांदी के सिक्के बताया जा रहे है। एक गडढे में मिटटी खोद रही महिला  श्रमिक को मिटटी का धडा मिला जिसमें 35 नग बड़े एवं 22 नग छोटे सोने के सिक्के, एक चांदी का सिक्का एवं एक सोने की बाली मिली। उक्त सभी सिक्के 12 वी से 13 सदी के माने गये है। इन सिक्को को देवगिरि के यादव राजाओं (850 ई से 1334 ई तक) द्वारा जारी बताया जा रहा है। औरंगाबाद के पास आधुनिक दौलताबाद ही पूर्व में देवगिरि के नाम से प्रसिद्ध था। यादव राजवंश ने देवगिरि को केन्द्र बनाकर दक्षिण भारत में अपनी धाक जमा ली थी, यादव राजवंश में भिल्लम, सिंधण, कृष्ण जैसे महान राजा हुये है। देवगिरि से जुड़ा एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि मोहम...

तीरथगढ़

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झरनों का गढ़ - तीरथगढ़ ........! बस्तर के कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान में झरनों का अपनी खुबसूरत दुनिया है। धरा पर सूर्य की किरणे तक पहुंचने नही देने वाले, इस घने जंगल में असंख्य छोटे मोटे झरने है। कुछ तो खोजे जा चुके है और कुछ की खुबसूरती अब भी दुनिया के समक्ष आने को शेष है। बस्तर के झरनों के बारे में यदि कभी कहीं कोई चर्चा हो तो उसमें ये दो झरनों का नाम जरूर आता है- पहला है चित्रकोट और दुसरा तीरथगढ़। बचपन में मैने जब तीरथगढ़ नहीं देखा था तब तक मैं तीरथगढ़ का अभिप्राय किसी तीर्थ स्थान को ही समझता था, कोई मंदिर जैसा कोई धार्मिक स्थल होगा ऐसी ही मेरी इसके प्रति समझ थी। जब मैने तीरथगढ़ को देखा तब पता चला यह तो झरना है। बहुत ही बड़ा झरना है। वास्तव में तीरथगढ़ छत्तीसगढ़ के सबसे बड़े झरनों में से एक है। लगभग 300 फीट की उंचाई से गिरती रजत जलधाराये , फिसलपटटी समान चटटानों पर मोतियों के रूप में झरते हुये बहती है। छोटी छोटी बुंदे मोती के रूप में बिखर जाती है। तीरथगढ़ मुनगा और बहार नदियों के संगम पर बसा छोटा सा गांव है। इस मुनगाबहार नदी के विशाल झरने का नामकरण इस गांव के उपर ही तीरथगढ़ जलप्रपात हो गया है। ...

बैलाडिला

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बस्तर की पहचान - बैलाडिला......! बैलाडिला की लौह खदाने पुरे एशिया में बस्तर की पहचान है। बैलाडिला पर्वत श्रृंखला की अवस्थिति दक्षिण बस्तर के मस्तक पर तिलक के समान है। बैलाडिला नाम पड़ने के पीछे महत्वपूर्ण कारण है यह कि इसकी सर्वोच्च चोटी का आकार बैल के डीले अर्थात बैल के कुबड़ के समान है। जिसके कारण इस पर्वत श्रृंखला को बैलाडिला के नाम से जाना जाता है।  बैलाडिला की पहाड़ियों पर राष्ट्रीय खनिज विकास निगम द्वारा 1966 से लगातार की जा रही है। बैलाडिला की लौहे खाने एशिया की सर्वश्रेष्ठ लौह खाने है। यहां का लौह अयस्क उत्तम श्रेणी का है इसमें लोहे की मात्रा 60 से 70 प्रतिशत तक पाई जाती है। किरन्दुल कोटवालसा रेलमार्ग द्वारा जापान और विशाखापटनम संयंत्र में लौह अयस्क का निर्यात किया जाता है। बैलाडिला की तलहटी में दो नगर बसे है पहला बड़े बचेली और दुसरा किरन्दुल।  सामान्यत बोलचाल की भाषा में किरन्दुल के लिये बैलाडिला का प्रयोग किया जाता है जिससे अधिकांशत लोगो को बैलाडिला नामक अन्य नगर होने का भ्रम होता है। बैलाडिला पहाड़ी के कारण ही उस क्षेत्र को बैलाडिला की संज्ञा दी गई है। एक अनुमान के मुताब...

तक्षक नाग

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बस्तर का उड़ने वाला तक्षक नाग.....! बैलाडिला के जंगल हैं तक्षक नाग का घर .........! आज विश्व सर्प दिवस पर यह विशेष जानकारी ........! बस्तर घने जंगलो के कारण वन्य जीवों से समृद्ध रहा है। अत्यधिक शिकार एवं जंगलो की कटाई से बहुत से वन्य जीव बस्तर से लुप्त हो चुके है। आज भी बस्तर के कुछ क्षेत्रों की वन संपदा आमजनों से अछुती है। दक्षिण बस्तर दंतेवाड़ा के बैलाडीला के जंगल आज भी वन्य जीवों के रहवास के आदर्श स्थल है। जब बात रेंगने वाले जीवों अर्थात सर्प प्रजाति की होती है तो भी उस मामले में भी बस्तर के जंगल अव्वल है। दक्षिण बस्तर में बैलाडिला की पहाड़ियों के जंगल एवं बस्तर के अन्य जंगलो में आज भी पौराणिक सांप तक्षक कभी कभी लम्बी छलांग लगाते हुये दिखायी पड़ता है। स्थानीय स्तर पर इसे उड़ाकू सांप भी कहा जाता है। महाभारत के बाद राजा परीक्षित के समय इस तक्षक नाग से जुड़ा एक प्रसंग है जिसके अनुसार श्रृंगी ऋषि ने महाराज परीक्षित को श्राप दिया था कि तुम्हारी मृत्यु तक्षक नाग के डसने से होगी। तक्षक नाग के डसने से राजा परीक्षित की मृत्यु हो गयी तब परीक्षित के पुत्र जनमेजय ने तक्षक नाग से बदला लेने के लिये सर्...

पुटू

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बस्तरिया पुटू.......! मशरूम बस्तर की संस्कृति का अहम हिस्सा है। कहीं भी सहजता से पनपने वाले मशरूम बस्तरिया खान पान में मुख्य रूप से सम्मिलित है। बस्तर में लगभग हर तरह के मशरूम पुटू के प्रचलित नाम से ही खाये जाते है। बाजार में किसी भी प्रजाति का कोई भी पुटू तुरंत बिक जाता है। लोगों में इसकी सब्जी खाने का इतना शौक है कि हाथों हाथो, मुंहमांगे दाम में मशरूम खरीद लिये जाते है। पुटू चुनकर बाजार में बेचने वाले ग्रामीणों के लिए यह फायदे का धंधा है। ग्रामीणों को परंपरागत ज्ञान से माल ूम रहता है कि जंगल में पाए जाने वाले कौन से मशरूम खाने योग्य हैं। बस्तर में मशरूम की बहुत सी प्रजातियां खायी जाती है। मशरूम एक साधारण फंफूद संरचना है। मशरूम मूलतः दो भागों में बंटा हुआ है। पहला भाग छतरी और दुसरा भाग डंडी के रूप में रहता है। दोनो ही भाग खाने योग्य होते है। मशरूम के बहुत से प्रकार है जैसे सफेद छाते वाले, गदावाले, बटन वाले, पैरा पुटू, छाती पुटू, डेंगुर पुटू हरदुलिया मंजूरढूंढा तथा तेन्दूछाती आदि ऐसे बहुत से पुटू है जिनकी सब्जी बेहद ही लजीज और स्वादिष्ट बनती है। पुटू सुपाच्य कार्बोहाड्रेट एवं प्रोटीन य...

तुपकी

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तुपकी से भगवान जगन्नाथ को सलामी.........! बस्तर में भगवान जगन्नाथ के सम्मान में प्रतिवर्ष गोंचा त्यौहार बड़े धुमधाम से मनाया जाता है। भगवान जगन्नाथ के प्रति आस्था के इस महापर्व में आदिवासी जनता भगवान को सलामी देने के लिये जिस उपकरण का उपयोग करती है उसे तुपकी कहते है। गोंचा महापर्व में आकर्षण का सबसे बड़ा केन्द्र तुपकी होती है। विगत छः सौ साल से तुपकी से सलामी देने की परंपरा बस्तर में प्रचलित है।तुपकी बांस से बनी एक खिलौना बंदुक है। तुपकी में पौन हाथ लंबी बांस की एक पतली नली होती है। यह दोनो ओर से खुली होती है। इसका धेरा सवा इंच का होता है। नली में प्रवेश कराने के लिये बांस का ही एक मूंठदार राड होता है। लंबी नली के छेद से गोली राड के द्वारा प्रवेश करायी जाती है। नली का अगला रास्ता पहली गोली से बंद हो जाता है। जब दुसरी गोली राड के धक्के से भीतर जाती है और हवा का दबाव पड़ते ही पहली गोली आवाज के साथ बाहर निकल भागती है। मटर के दाने के आकार का फल इस तुपकी में गोली का काम करता है। इस फल को पेंग कहा जाता है। ये जंगली फल होते है जो मालकागिनी नाम की लता में लगते है। मलकागिनी के फलों को तुपकी में गो...

गरी खेल

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धैर्य का खेल - गरी खेल.....! आज राष्ट्रीय मतस्य पालक दिवस है। 10 जुलाई 1957 को डॉ हीरालाल चौधरी और डॉ. के.एच. अलिकुन्ही ने भारत में मछलियों के उत्प्रेरित प्रजनन कार्यक्रम सफलता पूर्वक क्रियान्वित करवाया था। उसकी स्मृति में 2001 से प्रतिवर्ष 10 जुलाई को राष्ट्रीय मत्स्य पालक दिवस के रूप में मनाया जाता है। मतस्यपालक दिवस पर आज मछली पकड़ने की सबसे आसान विधि गरी खेल पर चर्चा आवश्यक हो जाती है। नदी तालाबो के किनारे रहने वाले लोगों के मनोरंजन का सबसे अच्छा साधन गरी खेलना होता है। गरी कोई छुपम छुपाई या पकड़म पकड़ाई का खेल नहीं है, गरी तो शतरंज की तरह चाल में फंसाने का खेल होता है। वास्तव में गरी खेलने का मतलब मछली पकड़ना होता है। गरी खेल में बांस की पतली सी लगभग 10 फीट की डंडी होती है। इस डंडी के एक सिरे पर नायलान का पतला धागा बांधा जाता है। जो लगभग 10 फीट से भी ज्यादा लंबा होता है। इसे धागे में मछली को पकड़ने के लिये लोहे का कांटा होता है। कांटे में केंचुये को चारे के रूप में फंसा कर लगाया जाता है। किस्मत अच्छी हुई तो बहुत सी मछलियां पकड़ में आ जाती है। गरी खेलने में अलग ही आनंद है। बस्तर में नदी ...

सोनई -रूपई

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सोनई -रूपई का तालाब, गढ़िया पहाड़ कांकेर......! कांकेर बस्तर से अलग एक रियासत थी, इसका अपना रोचक इतिहास है। कांकेर शहर के गढ़िया पहाड़ की अपनी ऐतिहासिक गाथा है। गढ़िया पहाड़ 700 साल पहले कांकेर राजाओं की राजधानी हुआ करती थी। सोमवंशी राजाओ के बाद धरमन नाम के कंडरा जाति के सरदार ने कांकेर की सत्ता अपने हाथ में ले ली। धरमन धर्मदेव के नाम से 1345 से 1367 ई तक कांकेर पर राज किया। कंडरा राजा के नाम से चर्चित धर्मदेव ने गढ़िया पहाड़ को अपनी राजधानी बनाकर किले का निर्माण कराया था। आज भी व हां किले के अवशेष बिखरे पड़े है। गढ़िया पहाड़ पर एक तालाब भी है। इस तालाब के साथ एक रोचक कथा जुड़ी हुई है। धर्मदेव कंडरा राजा ने अपनी प्रजा के जलापूर्ति के लिये पहाड़ पर एक तालाब खुदवाया, पर तालाब में पानी ज्यादा दिन ठहरता नहीं था, वह जल्द ही सुख जाता था। धर्मदेव की दो बेटियां सोनई और रूपई एक दिन उस सूखे तालाब में खेल रही थी। तब अचानक देवीय संयोग से, सूखा तालाब पानी से लबालब हो गया, वहां खेल रही सोनई और रूपई दोनो तालाब में डूबकर मर गई , इस घटना के कारण यह तालाब सोनई रूपई तालाब के नाम से जाना जाता है। इसका एक छोर सोनई और द...

चेंदरू

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जंगल का फूल  - चेंदरू द टायगर बाय.....! शेर के साथ खेलते हुये इस आदिवासी लड़के की फोटो पर हर किसी की नजर अनायास ही चली जाती है, फोटो देखने के बाद हर किसी के मन में इसे जानने की उत्सुकता रहती है। यह लड़का बस्तर के जंगलों का वह फूल था जिससे हर कोई देखना चाहता था, मिलना चाहता था, उससे बात करना चाहता था।  शकुंतला दुष्यंत के पुत्र भरत बाल्यकाल में शेरों के साथ खेला करते थे वैसे ही बस्तर का यह लड़का शेरों के साथ खेलता था। इस लड़के का नाम था चेंदरू। चेंदरू द टायगर बाय के नाम से मशहुर चेंदरू पुरी दुनिया के लिये किसी अजुबे से कम नही था। बस्तर मोगली नाम से चर्चित चेंदरू पुरी दुनिया में 60 के दशक में बेहद ही मशहुर था। हर कोई उसकी एक झलक पाने को बेताब रहता था। चेंदरू मंडावी नारायणपुर के गढ़ बेंगाल का रहने वाला था। मुरिया जनजाति का यह लड़का बड़ा ही बहादुर था। बचपन में इसके दादा ने जंगल से शेर के शावक को लाकर इसे दे दिया था। चेंदरू ने उसका नाम टेंबू रखा था। इन दोनो की पक्की दोस्ती थी। दोनो साथ मे ही खाते , घुमते और खेलते थे। इन दोनो की दोस्ती की जानकारी धीरे धीरे पुरी दुनिया में फैल गयी। स्वीडन के...