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Showing posts from August, 2018

गोन्चा

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गोन्चा - बस्तर का तिहार.....! उत्कल देश मे विराजित भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा पुरे देश मे उत्साह और भक्तिभाव के साथ मनाई जाती है. गली गली मे जगन्नाथ भगवान के रथ खींचने की होड़ मची रह्ती है. आषाढ मास में ह्ल्की फ़ुहारो के साथ जय जगन्नाथ जयकारा गुंजता रह्ता है. नवांकुर धान की हरितिमा लिये माशुनि देश के वनो में सुन्दर रथो पर सवार भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा हर किसी का ध्यान आकर्षित करती है. जहाँ सारा विश्व रथयात्रा के नाम से उत्सव मनाता है वही भ्रमरकोट का बस्तर इसे गोन्चा नाम का अनोखा सम्बोधन देता है. रथयात्रा यहाँ गोन्चा पर्व कहलाती है, गोन्चा नाम का सम्बोधन मुझे एक एतिहासिक संस्मरण का याद दिलाता है. यह संस्मरण बस्तर के चालुक्य नृपति रथपति महाराज पुरुषोत्तम देव के संकल्प को फ़िर से ताजा कर देता है. वारनगल से आये , चालुक्य कुल भूषण महाराज अन्नमराज के पौत्र भयराजदेव बस्तर के राजा भये. भयराजदेव के पुत्र हुए रथपति पुरुषोत्तम. यथा नाम तथा गुण इस बात को सिद्ध करते महाराज पुरुषोत्तम देव 1408 की इस्वी मे चक्रकोट राज्य के राजा बने. 1324 में अन्नमदेव से लेकर सन 47 के प्रवीर तक इन चालुक्य नृपतियो मे पुर...

गढ़िया

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अनजाना बस्तर- गढ़िया ....! बस्तर में अनदेखी एवं संरक्षण के अभाव में बहुत से ऐतिहासिक मंदिर आज ध्वस्त हो चुके है या फिर ध्वस्त होने की कगार पर है। इनके जीर्णोद्धार एवं संरक्षण के लिये शायद किसी को रूचि नहीं है। आलम तो यह है कि बहुत से मंदिरो की जानकारी शासन को दुर, आम लोगों को भी नहीं है। एक तरफ तो टूरिज्म को बढ़ावा देने के लिये विभिन्न तरह के कार्यक्रम किये जाते है वहीं जब बात ऐतिहासिक मंदिरों के मरम्मत एवं जीर्णोद्धार की आती है तो सब को सांप सूंध जाता है। ऐसा ही एक मंदिर है गढ़िया का शिव मंदिर। गढ़िया बस्तर जिले के लोहंडीगुड़ा ब्लाक में छोटा सा ग्राम है। गढ़िया नागयुगीन बस्तर में एक महत्वपूर्ण दुर्ग था। चक्रकोट के महान नृपति छिंदक नागवंशी शासक राजभूषण सोमेश्वर देव ने 1097 ई में गढ़िया ग्राम में शिव मंदिर का निर्माण करवाया था। पूर्वाभिमुख यह मंदिर गर्भगृह अंतराल और मंडप में विभक्त था जिसमें मंडप पूर्णतः ध्वस्त हो चुका है। गर्भगृह का मात्र ढांचा ही शेष है। साल भर पहले गढ़िया के किसी आसामाजिक तत्व ने इस मंदिर के बाहर रखे शिलालेख को टूकड़े टूकड़े कर दिया। बस्तर के ऐतिहासिक विरासत को मटियामेट करने क...

तुंगल बांध

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सुकमा का तुंगल बांध.....! सुकमा दक्षिण बस्तर में ओडिसा एवं आंध्रप्रदेश की सीमाओं से लगा हुआ सीमांत जिला है। एक सिक्के के दो पहलू की तरह सुकमा एक ओर जहां माओवादी आतंक से पीड़ित है वहीं दुसरी ओर सुकमा भौगोलिक रूप से स्वर्ग सा सुंदर है। दुर दुर तक फैले हुये हरे भरे खेत, आसमान से बाते करते हुये ताड़ के वृक्ष, विशाल पर्वत श्रृंखलाये, कल कल बहती शबरी नदी ये सभी मिलकर सुकमा को स्वर्ग सा सुंदर बनाते है। आज हम सुकमा के पास ही तुंगल बांध की चर्चा करते है। सुकमा से लगा हुआ छोटा सा ग्राम  है मुरतोंडा। इस मुरतोंडा ग्राम में पानी को रोकने के लिये छोटा सा बांध बनाया गया है जिसके कारण एक बड़े भू भाग पर जलभराव हो गया है। यह तुंगल बांध चारो तरफ घने जंगलों से घिरा हुआ है। पानी में छोटे छोटे टापू बने हुये है जिस पर छायादार घने वृक्षों की भरमार है। जलभराव के कारण ताड़ के वृक्ष भी पानी में कतार बद्ध डूबे हुये है। प्रशासन के द्वारा इस बांध को बहुत ही सुंदर एवं आकर्षक तरीके से विकसित किया है। बांध में नाव चालन बोटिंग की भी व्यवस्था है। बांध के पास ही छोटा सा पार्क बनाया गया है जिसमें एमु जैसे विशाल पक्षी रखे ...

पाट जात्रा

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पाट जात्रा रस्म के साथ बस्तर दशहरे की शुरूआत.....! बस्तर में प्रत्येक वर्ष की तरह इस साल भी दशहरे का आगाज हरेली अमावस को पाट जात्रा की रस्म से हो चुका है। बस्तर में बीते छः सौ साल से दशहरा मनाया जा रहा है। यहां के दशहरा कुल 75 दिनों तक चलता है जो कि पुरे विश्व का सबसे लंबा दशहरा है। दशहरा में पूरे भारत में जहां रावण के पुतले जलाये जाने की परंपरा है वही बस्तर रावण के पुतले ना जलाये जाकर दशहरा में रथ खींचा जाता है। बस्तर दशहरा 1408 ई से आज तक बड़े ही उत्साह एवं धुमधाम से जगदलपु र शहर में मनाया जा रहा है। इसमें प्रत्येक पुरे बस्तर के लाखो आदिवासी सम्मिलित होते है। दशहरा की रस्म 75 दिन पूर्व पाट जात्रा से प्रारंभ हो जाती है। दशहरे में दो मंजिला रथ खींचा जाता है। जिसमें मां दंतेश्वरी का छत्र सवार रहता है। दंतेवाड़ा से प्रत्येक वर्ष माईजी की डोली दशहरा में सम्मिलित होने के लिये जाती है। बस्तर दशहरा बस्तर का सबसे बड़ा पर्व है। इसी पर्व के अंतर्गत प्रथम रस्म के तौर पर पाटजात्रा का विधान पुरा किया गया है। बस्तर दशहरा निर्माण की पहली लकड़ी को स्थानीय बोली में टूरलु खोटला एवं टीका पाटा कहते हैं।बस्त...

दंडामी माड़िया

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दंडामी माड़िया नृत्य.....! बस्तर में माड़िया जनजाति के नर्तक दलों का जादू बस्तर ही नही पुरी दुनिया में छाया हुआ है। उनके आभूषण, पहनावा, नृत्य मुद्राये सब कुछ बेहद आकर्षक लगता है। दंडामी माड़िया बस्तर के लगभग हर क्षेत्र में निवासरत है। दंडामी माड़ियों का नृत्य देखते ही बनता है। उनकी नृत्य शैली किसी का भी मनमोह लेती है। इस नृत्य को गौर माड़िया नृत्य भी कहा जाता है। मांदर की थाप जब कानों तक पहुंचती है तो पैर अपने आप थिरकने लग जाते है। दंडामी माड़ियों की नर्तक दल दो दलों में बंट कर नृत्य करता है। एक तरफ पुरूष एवं दुसरी तरफ महिलाये। दंडामी माड़िया पुरूषों की वेशभूषा बस्तर की पहचान बन चुकी है। सिर पर गौर के सींगों से बना हुआ आकर्षक मुकूट , उस पर पक्षियों के रंग बिरंगे पंख , सामने कौड़ियों की लटकती हुई लड़े, गले में लटका हुआ बड़ा सा ढोल (मांदर) ये सभी माडिया नर्तक को अलग पहचान देते है।  वहीं माड़िया स्त्री दल में महिलायें लाल रंग के कपड़े, सिर पर पीतल का गोल मुकूट, गले में मोहरी माला, हाथों में बाहुटा, पहने होती है। ये सब इनके नृत्य में निखार लाते है। हाथों में लोहे की पतली सी छड़ी जिस पर लोहे की पत्त...

कर्णेश्वर मंदिर सिहावा

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कर्णेश्वर महादेव मंदिर सिहावा......! #सावन_मे_बस्तर_के_शिवालय_तीसरा_सोमवार कांकेर एक अलग रियासत रही है। कांकेर का अपना समृद्ध इतिहास रहा है। आजादी के बाद बस्तर और कांकेर दोनो रियासतों को मिलाकर बस्तर जिला बना दिया गया था। आज बस्तर जिले में कुल 7 जिले है एवं संभाग का नाम बस्तर है।  कांकेर मे ग्यारहवी सदी से चौदहवी सदी के पूर्वाद्ध तक सोमवंशी राजाओं का शासन था। सोमवंशी शासकों ने कांकेर के अलावा सिहावा क्षेत्र में भी अपनी राजधानी बनाई थी। सिहावा क्षेत्र वर्तमान धमतरी जिले के अंतर्गत आता है। सिहावा 1830 ई तक बस्तर रियासत का महत्वपूर्ण परगना था।   सिहावा में कांकेर के सोमवंशी राजा कर्णदेव द्वारा बनवाये हुये कुल 5 प्राचीन मंदिर है। इन मंदिर समूह को कर्णेश्वर महादेव मंदिर समूह के नाम से जाना जाता है। इन मंदिरों में एक मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। दुसरा मंदिर रामजानकी मंदिर है जिसमें भगवान राम सीता लक्ष्मण की संगमरमर की नवीन प्रतिमा एवं विष्णु की दो तथा सूर्य की एक प्राचीन प्रतिमायें रखी हुई है। अन्य दो मंदिरों मे क्रमश भगवान गणेश, दुर्गा की प्रतिमायें कालांतर में रखी गई है। एक...

बस्तर में हाथी

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हाथी की पाती....! आज विश्व हाथी दिवस पर हाथी की चर्चा आवश्यक हो जाती है. धरती पर सबसे बड़ा स्तनपायी जीव हाथी है. शुरु से ही इंसानो ने हाथी को पालतु बना लिया था. हाथी का यदि पौराणिक महत्व देखे तो यह हम सभी को मालूम है कि भगवान गणेश हाथी के सिर के कारण वे गजानन कहलाये. इन्द्र का वाहन एरावत हाथी था. देवी लक्ष्मी पर घडो से अमृत उडेलते हाथी ऐसे शिल्पांकन आज भी मन्दिरो या चित्रो में देखने को मिलते है. सफ़ेद हाथी भी होते हैं जिसे बेहद शुभ माना गया है. आज छत्तीसगढ़ हाथी प्रदेश हो गय ा है. झारखंड एवं ओडिसा के हाथियो ने छत्तीसगढ़ मे अपना स्थायी डेरा जमा लिया. आये दिन हाथियो द्वारा घरो को तोड़ने एवं इंसानो को कुचलने की खबर आती रहती है. करंट या अन्य तरिके से हाथियो के मरने की भी खबरे आती है. दोनो के लिये यह स्थिति भयावह है इसका स्थायी समाधान आवश्यक है. छत्तीसगढ़ के उत्तरी क्षेत्र के विपरित यहाँ दक्षिण मे बस्तर मे हाथी नहीं है. ओडिशा के हाथी पडोसी बस्तर के जंगलो मे लहराते लाल झंडो को पहचानते है इसलिये उन्होने बस्तर की तरफ़ रुख नहीं किया. एक समय था जब बस्तर मे हाथी पाये जाते थे. यहाँ के बहुत से ऐतिहास...

छतोड़ी

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छतोड़ी की खोज.....! सावन भादो की बरसात मे सभी जगह रंग बिरंगे लाल काले छाते ओढे ही लोग दिखते है। छतोड़ी पहनकर जाता कोई भी अब दिखता नहीं है। बांस से बनी छतोड़ी बहुत काम की चीज है जब बस्तरिया बरसात के दिनो ंमें खेत जाता है या मछली पकड़ने तालाब जाता है तो वह छतोड़ी पहनकर ही जाता है। अब तो बस्तरिया और बस्तरिन दोनो के हाथो में सिर्फ काला छाता ही दिखता है भले ही पानी गिरे या तेज धुप हो। ऐसी कोई बस्तरिन नहीं जिसके हाथो में काला छाता ना हो। छतोड़ी तो अब बीते दिनों की बात हो गई है। छतोड़ी थोड़ी बड़ी साईज की गोलाकार होती है। वहीं इसका एक रूप ढूटी भी होती है यह अपेक्षाकृत थोड़ी छोटी होती है। इन्हे बनाने के लिये लचीले बांस की खपचियों को उड़नतश्तरी के आकार में बनाया जाता है। बीच में पत्तें या प्लास्टिक की झिल्लियों को डालकर कर रस्सियों से मजबूती से बांध दिया जाता है और फिर छतोड़ी तैयार हो जाती है। एक समय था जब गाँवो मे बांस से बनी छतोडी ओढे महिलाये खेतो मे रोपा लगाते हुए दिखाई देती थी। छतोडी पर पड़ती वर्षा की बुन्दे टीप टीप की मधुर संगीत कानो मे घोलते रह्ती थी। छत्तीसगढ़ के गांवो में इन दिनो ंचरवाह सर पर छतोडी पह...

ब्रह्म कमल

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दुर्लभ ब्रह्म कमल......! हिमालय में पाये जाना वाला यह दुर्लभ पुष्प ब्रह्म कमल बेहद ही पवित्र फूल है। माना जाता है कि यह फूल साल में एक बार सिर्फ सावन मास में ही खिलता है। यह फूल भगवान शिव का सबसे पसंदीदा फूल है। शिवभक्त इसे भगवान शिव को अर्पित करते हैं। इसे ब्रम्हमुहुर्त में ही भगवान शिव को अर्पित किया जाना बेहद ही शुभ माना जाता है। ब्रह्म कमल पौधे की पत्तियों में कली का रूप धारण कर खिलता है। बस्तर में भी कुछ लोगों के घरो में ब्रह्म कमल का पौधा है जिसमें साल में सिर्फ सावन माह मे ही एक बार ब्रह्म कमल फूल खिलता है। इस फूल की अन्य खासियत यह है कि सिर्फ रात को ही खिलता है। रात ढलते ही सुबह तक यह फूल मुरझा जाता है। ब्रह्म कमल से जुड़ी बहुत सी पौराणिक मान्यताएं हैं जिनमें से एक के अनुसार जिस कमल पर सृष्टि के रचयिता स्वयं ब्रह्मा विराजमान हैं वही ब्रह्म कमल है इसी में से सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा जी की उत्पत्ति हुई थी। इस कमल से संबंधित एक बहुत प्रचलित मान्यता कहती है कि जो भी व्यक्ति इस फूल को देख लेता है. उसकी हर इच्छा पूर्ण होती है। इसे खिलते हुए देखना भी आसान नहीं है क्योंकि यह देर रात में...

गुंडाधुर

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भूमकालेया - गुंडाधुर.....! 1774 ई से अंग्रेज बस्तर में लगातार पैर जमाने की कोशिश कर रहे थे। बीसवी सदी आते तक वे बस्तर के सार्वभौम बन चुके थे। इन दो सौ साल में बस्तर के आदिवासियों ने अंग्रेजी हुकूमत के विरूद्ध कई बार विद्रोह का झंडा बुलंद किया और हर बार विद्रोहियों का दमन किया गया।  1910 का महान भूमकाल आंदोलन बस्तर के इतिहास में सबसे प्रभावशाली आंदोलन था। इस विद्रोह ने बस्तर में अंग्रेजी सरकार की नींव हिला दी थी। पूर्ववती राजाओं के नीतियों के कारण बस्तर अंग्रेजों का औपनेविषक राज्य बन गया था। बस्तर की भोली भाली जनता पर अंग्रेजो का दमनकारी शासन चरम पर था। दो सौ साल से विद्रोह की चिंगारी भूमकाल के रूप में विस्फोटित हो गई थी।  भूमकाल आंदोलन के पीछे बहुत से कारणों की लंबी श्रृंखला है। आदिवासी संगठित होकर अंग्रेजी सत्ता को बस्तर से उखाड़ फेककर मुरियाराज की स्थापना के लिये मरने मारने पर उतारू हो गये थे। बस्तर के आदिवासियों के देवी दंतेश्वरी के प्रति आस्था में अंग्रेजी सरकार का अनावश्यक  हस्तक्षेप बढ़ गया था। अंग्रेजी सरकार द्वारा नियुक्त दीवानों की मनमानी अपने चरम पर थी। वनों की अं...