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Showing posts from April, 2018

माटी तिहार

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बस्तर का माटी तिहार ......! विश्व पृथ्वी दिवस पर विशेष .....!! बस्तर के जनजातीय समाज मे मिट्टी य़ा माटी (धरती) को भगवान माना जाता है, अपनी मां माना जाता है। धरती से मिलने वाली हर वस्तु को सबसे पहले माटी को समर्पित की जाती है। आदिवासी धरती के प्रति अपने ऋण को चुकाने के लिये , माटी के सम्मान मे उत्सव मनाता है. आज के दिन हम धरती दिवस मना रहे है इसलिये क्योकी बढ़ती जनसंख्या , अंधाधुंध वृक्षो की कटाई , धरती से प्राप्त संसाधनो का असीमित दोहन के कारण हमारी पृथ्वी विनाश की ओर अग्रसर  हो रही है. पृथ्वी दिवस मनाकर हम धरती को विनाश से बचाने की मुहिम चला रहे है. बस्तर का जनजातीय समाज आज हजारो साल से धरती को विनाश से बचाने के लिये , माटी के प्रति अपने ऋण उतारने के लिये प्रतिवर्ष माटी तिहार मनाता है. माटी तिहार के अंतर्गत मार्च से लेकर जून तक धरती मां को समर्पित त्योहार मनाये ज़ाते है. जनजातीय समाजो मे आम महुआ ईमली आदि वनोपज को सबसे पहले अपने माटी देवी को अर्पित करने के बाद ही स्वयं के लिये उपयोग किया जाता है। माटी तिहार को बीज पूटनी य़ा बीज पंडुम भी कहा जाता है। माटी तिहार बड़े हर्षोल्लास के साथ म...

आमा तिहार

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बस्तर का आमा तिहार ......! ये आम देखकर कई लोगों का मन इसे खाने के लिये ललचा रहा होगा। आप सभी इन कच्चे हरे आम,को काटकर नमक मिर्ची लगाकर खाने के लिये मन ही मन सोच रहे होगें। दोस्तों आज हम बात करते है बस्तर के आमा तिहार की। बस्तर में इन दिनों नदी नालों के किनारे आम के पेड़ लगाने वाले अपने पूर्वजों को याद कर आमा तिहार मनाया जा रहा है। इस आमा तिहार द्वारा पेड़ लगाकर सदा के लिये अमर होने की बात बस्तर में अक्षरशः सिद्ध हो रही है। अपने पूर्वजों के सम्मान में आमा तिहार जैसा उत्सव आपको और कहीं भी दिखाई नहीं देगा। आमा तिहार में किसी एक आम पेड़ के नीचे सभी ग्रामीण एकत्रित होते है। उस पेड़ की पूजा करते है। फिर पहली बार उस पेड़ से आम तोड़े जाते है। वहीं पूजा स्थल पर महिलायें आम की फाकियां बनाकर इसमें गुड़ मिलाती है। फिर सभी को आम की फांकियां प्रसाद स्वरूप वितरित की जाती है। बस्तर मे ऐसी परंपरा है कि जब तक आम, महुआ या ईमली जैसे फलों के तोड़ने लिये ऐसे तिहार (त्यौहार) ना मना लिया जाये तब तक पेड़ो से इन फलों को तोड़ा नहीं जाता है। इसके पीछे मान्यता है कि बिना पूजा किये फल तोड़ने से ग्राम देवता नाराज हो जायेंगे। म...

"गढ़" और "गढ़िया"

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"गढ़" और "गढ़िया" ......! विश्व विरासत दिवस पर विशेष ! मैने जोधपुर के मेहरानगढ़ किले को कई बार देखा है। आप में से कुछ लोगो ने इसे जरूर देखा होगा। कितना विशाल , भव्य एवं अभेद्य सुरक्षित किला है यह. यह किला विश्व का सबसे ऊँचा किला है. इसे जीतना हर किसी के लिये संभव नही था. इस किले को देखकर मुझे प्राचीन बस्तर मे राजाओ के आवास को जानने की इच्छा होती है. हालांकि बस्तर से जुडी किताबो मे यहां के किलो य़ा महलो की चर्चा कम ही मिलती है। लगभग दो हजार साल पहले बस्तर मे आदिवासी कबीलो का उल्लेख मौर्य राजाओ के लेखो मे मिलता है. वे आदिवासी आज की तरह ही जंगलो मे छोटे छोटे समुहो मे रहा करते थे. सातवाहनो के समय कमोबेश यही स्थिती रही होगी. उसके बाद तीसरी सदी से लगभग आठवी सदी तक बस्तर मे नल वंश के राजाओ ने राज किया. नल राजाओ के महल पक्की इंटो के बनते थे. जैसे हम आज के पक्के मकान मे रहते है लगभग वैसे ही उनके महल होते थे. गढधनोरा मे नल राजाओ के टीलो से निकले आवासीय संरचना यही संकेत देते है. मन्दिर , घर सब इंटो से ही बनते थे. छत घास फुस की होती थी. नलो के अधिकांश बस्तियां ऊँचे मैदानी क्षेत्र म...

दीमक की बांबी

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बुढ़ादेव के रूप में पूजी जाती है दीमक की बांबी.......! दीमक की बांबियों के बारे में हम सभी जानते है। लेकिन बहुत कम लोगों ने 10 फिट की उंचाई वाले दीमक की बांबियों को देखा होगा। बस्तर के जंगलों में दीमक की बड़ी बड़ी बांबियां आज भी देखने को मिलती है। कुछ बस्तियों के आसपास भी ऐसी बड़ी बांबिया आज भी दिखाई पड़ती है। यहां के आदिवासी प्रकृति पूजक है। इसका प्रमाण उनके विभिन्न धार्मिक उत्सवों में देखने को मिलता है।  अपनी श्रद्धा के कारण दीमक की बांबी को भी देव मानकर पूजा की जाती है। यहां के जनजातीय समाज में इन दीमक की बांबियों के बुढ़ादेव मानकर पूजा की जाती है। ग्रामीण इनकी पुरी सुरक्षा करते है। इनके इस धार्मिक विश्वास के कारण इन बांबियों में रहने वाले नाग सर्पो की सुरक्षा होती है। यहां के स्थानीय भाषा में इन बांबियों को डेंगुर कहा जाता है। इन बांबियों को बुढ़ादेव का निवास अर्थात भगवान शिव का घर माना जाता है। हरियाली अमावस्या एवं नवाखानी में इन बांबियों की पूजा की जाती है। यहां दुध चढ़ाया जाता है। ग्रामीण इन बांबियों की सुरक्षा कर नाग देवता को बचाते है। नाग कई आदिवासियों का गोत्र भी है। इसलिये अपने ...

कांगेर धारा जल प्रपात

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कांगेर धारा जल प्रपात, बस्तर......!  कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान का नाम सुनते ही हमारे मन मस्तिष्क मे तीरथगढ़ के झरने , विश्व प्रसिद्ध कुटूमसर गुफा , से जुड़ी स्मृतिय़ाँ घुमने लगती है. कांगेर घाटी पार्क मे एक बेहद शानदार झरना जिसकी जानकारी अधिकांश लोगो को नही होगी. कांगेर धारा नाम से ही मशहुर यह झरना बेहद ही खु बसुरत है. यह झरना कांगेर नदी पर बना है. इस नदी के नाम के कारण यह राष्ट्रीय उद्यान कांगेर घाटी के नाम से जाना जाता है. उद्यान में बहने वाली इस कांगेर नदी में तीन चरणो में बना यह छोटा झरना अपने प्राकृतिक सौंदर्य से किसी का भी मन मोह लेता है. इसकी अधिकतम ऊँचाई 30 फीट के करीब है. घने जंगल मे झरने की मधुर ध्वनि मन को बेहद प्रसन्नचित कर देती है. चट्टानो को गहरायी से काट कर कांगेर नदी ने बहुत ही सुन्दर झरनो का निर्माण किया है. इस झरने की आवाज दो किलोमीटर की दुरी से ही सुनाई देने लगती है. घने जंगलो में यह छोटा झरना बहुत ही सुंदर पिकनिक स्पाट है. कुटुमसर जाने वाले नाके से सिर्फ 6 किलोमीटर अन्दर पार्क मे ही है. स्वयं के वाहन से अप्रेल माह तक जाकर इसकी खुबसुरती को निहारा जा सकता है। ...

बस्तर की प्राचीन तोप बनी ओडिसा की बांडाबाघ ठकुरानी देवी

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बस्तर की प्राचीन तोप बनी ओडिसा की बांडाबाघ ठकुरानी देवी.......! रियासतकाल में बस्तर और पड़ोसी राज्य जैपोर दोनो के संबंध में कई उतार चढ़ाव आते रहे है। दोनो कभी एक हो जाते तो कभी दोनो एक दुसरे के परम शत्रु। इन दोनो राज्यों में कई बार युद्ध हुये है जिसमें दोनो की हार जीत होती रही है।  हार जीत में एक दुसरे के बहुमूल्य वस्तुओं की लूटकर ले जाने की परंपरा बेहद ही प्राचीन है। बस्तर और जैपोर राज्य के मध्य ऐसे ही एक युद्ध होने की दंतकथा मिलती है। इस युद्ध में विजयी राज्य जैपोर ने बस्तर की दो तोपों को विजय प्रतीक के रूप में अपने साथ ले गये थे। ये तोप आज देवी के रूप में पूजी जा रही है। श्रद्धा महत्वपूर्ण होती है, ना कि ,पूजी जानी वाली प्रतिमा या अन्य कोई प्रतीक। लोहे की प्राचीन तोप को देवी के रूप में पूजे जाने के कारण यह बात अक्षरशः सिद्ध हो जाती है।  जैपोर राजमहल के सामने बांडाबाघ ठकुरानी देवी का मंदिर है। सामान्यतः मंदिर में प्रतिमा, फोटो को प्रतीक मानकर पूजा की जाती है। परन्तु इस ठकुरानी देवी के मंदिर में प्रतिमा के बजाय लौहे की प्राचीन तोप को देवी मानकर पूजा की जाती है। स्थानीय लोग तोप ...

लोक देवताओं के आपसी संबंध

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लोक देवताओं के आपसी संबंध......! हर क्षेत्र विशेष में वहां के स्थानीय निवासियों के अपने देवी देवता होते है। प्रत्येक शुभ कार्य उनकी अनुमति से ही होते है। हर धार्मिक कार्यक्रम में लोक देवी देवता की उपस्थिति अनिवार्य रूप से होती है।  बस्तर के जनजातीय समाज में लोक देवी देवताओं की पूजा की जाती है। प्रत्येक ग्राम में उनके देवी देवताओं का स्थान होता है। हर गोत्र के अनुसार सभी जनजातीय समाज के अपने अपने देवी देवता होते है। डंगईया, प्रतिमायें, काष्ठ स्तंभ या सिर्फ सिंदुर से सने हुये प ्रस्तर लोक देवी देवताओं के प्रतीक के रूप में पूजे जाते है। ग्राम में एक देवगुड़ी होती है जो कि देवताओं का पवित्र स्थान होती है। यह कच्चे घास फूंस या पक्के मंदिर स्वरूप में भी होती है। इन्हे देवगुड़ी या पंडवाल भी कहते है। प्रत्येक ग्राम के देवता की उत्पत्ति से संबंधित लोक कथाये होती है। गांव में होने वाले हर शुभ कार्य एवं धार्मिक उत्सव इनकी सहमति एवं आराधना से ही संपन्न होता है। प्रत्येक वर्ष देवताओं के सम्मान में जात्रा एवं मंडईयां आयोजन की जाती है। किसी भी गांव में होने वाले मेले में आसपास के सभी लोक देवता शामि...

बस्तरिया ईमली

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बस्तरिया ईमली......! बस्तर के आदिवासियों के आय का सबसे प्रमुख श्रोत वनोपज ही है। वनों से खाद्य एवं दैनिक उपयोगी में जरूरी चीजे वनोपज के रूप में बहुतायत में प्राप्त होती है। महुआ, तेंदुपत्ता, लाख, चार, टोरा, ईमली आदि वनोपज को ग्रामीण एकत्रित कर बाजारो में बेचने के लिये लाते है जिससे उन्हे अच्छी खासी आमदनी हो जाती है। आज हम बात करते है ईमली की। ईमली का नाम सुनते ही कईयों के मुंह में पानी आ गया होगा। खटटी खटटी मीठी मीठी ईमली किसे अच्छी नहीं लगती है। बस्तर में ईमली का जबरदस्त पै दावार होती है। यहां घने जंगलो में इमली के लाखों पेड़ है जिनसे प्राप्त ईमली पुरे देश दुनिया में भेजी जाती है। बस्तर की जलवायु ईमली के लिये फायदेमंद है जिसके कारण हर साल टनों ईमली का उत्पादन एवं व्यापार बस्तर में होता है। अपने रिकार्ड पैदावार के कारण बस्तर का जगदलपुर एशिया का सबसे बड़ी ईमली मंडी के नाम से जाना जाता है। ग्रामीण अपने गांवों में ईमली के पेड़ों को विशेष संरक्षण करते है। गर्मी के शुरूआती दिनों में इमली की आवक चालू हो जाती है। आसपास के गांवो में लगने वाले हाट बाजारो में ग्रामीण टोकने या बोरो में भर भरकर ईमली ...

लुप्त होती तुंबा संस्कृति

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लुप्त होती तुंबा संस्कृति......! प्रकृति प्रदत्त वस्तुओं के कारण जंगल में जीवन जीने में आसानी होती है। बस्तर में यहां के आदिवासियों के जीवन में प्रकृति का सबसे ज्यादा योगदान रहता है। जहां आज हम प्लास्टिक, स्टील एवं अन्य धातुओं से बने रोजमर्रा की वस्तुओं का उपयोग करते है वहीं बस्तर में आज भी आदिवासी प्राकृतिक फलों , पत्तियों एवं मिटटी से बने बर्तनों का ही उपयोग करते है। इन प्रकृति प्रदत्त वस्तुओं में तुम्बा हर आदिवासी के पास दिखाई पड़ता है। दैनिक उपयोग के लिये तुम्बा बेहद महत्वपूर्ण वस्तु है। बाजार जाते समय हो, या खेत में हर व्यक्ति के बाजु में तुम्बा लटका हुआ रहता है। तुम्बे का प्रयोग पेय पदार्थ रखने के लिये ही किया जाता है। इसमे रखा हुआ पानी या अन्य कोई पेय पदार्थ सल्फी , छिन्दरस , पेज आदि में वातावरण का प्रभाव नहीं पड़ता है। यदि उसमे सुबह ठंडा पानी डाला है तो वह पानी शाम तक वैसे ही ठंडा रहता है। उस पर तापमान का कोई फर्क नहीं पड़ता है और खाने वाले पेय को और भी स्वादिष्ट बना देता है। खासकर सोमरस पाने करने वाले हर आदिवासी का यदि कोई सबसे महत्वपूर्ण सहयोगी है तो वह है तुंबा। तुंबा में अधिका...

बस्तर की पहचान - गौर माड़िया नृत्य

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बस्तर की पहचान - गौर माड़िया नृत्य .....! दण्डामी माडिया जनज़ाति का यह नृत्य अब बस्तर की पहचान बन चुका है.इसकी विशेषता यह है कि अन्य नृत्यों की तुलना में अधिक खुशी के साथ नृत्य  किया जाता है। गौर नृत्य बस्तर के नृत्यों में एक बेहद ही लोकप्रिय लोक नृत्य है। हर उत्सव , आयोजन मे यह नृत्य किया जाता है। गौर नृत्य दक्षिण बस्तर के माड़ियो में बहुत लोकप्रिय है. इस नृत्य मे गौर के सिंगो से मुकुट तैयार किया जाता है. मुकुट में सामने कौड़ियो की लड़िया लटकती रहती है. जो कि चेहरे को ढ़क देती है. भृंगराज पक्षी के पंखो को मुकुट में लगा कर सजाया जाता है. पुरूष गले में बडा ढ़ोलक बजाते हुए मदमस्त होकर गौर की तरह सिर को हिलाते हुए नाचते है. इस नृत्य मे महिलाये भी भाग लेती है.वे लोहे की छड़ी ज़िसे तिरड्डी कहते है उसे ज़मीन पर पटकते हुए पुरूषो के साथ कदम से कदम मिलाकर नृत्य करती है. मैं अक्सर यह नृत्य देखते रहता हूँ. किसी भी धार्मिक कार्यक्रम य़ा विशिष्ट व्यक्ति के आगमन पर इनके समुह नृत्य करते है. ढोल की जबरदस्त थाप , तिरड्डी की छनछनाहट , घूंघरू की मधुर आवाज मन को आनन्द से भाव विभोर कर देती है. यह नृत्य बिलकुल शाह...

भूपालेश्वर महादेव

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सागर में शिव .....भूपालेश्वर महादेव ! बस्तर में जगदलपुर सबसे बड़ा शहर है। लगभग ढाई सौ साल पहले बस्तर के काकतीय चालुक्य राजा दलपतदेव ने जगदलपुर की नींव रखकर अपनी राजधानी बनाई। महाराज दलपतदेव ने राजधानी जगदलपुर में विशाल तालाब खुदवाया जो कि महाराज के नाम पर ही दलपतसागर के रूप में प्रसिद्ध है।  महाराज दलपत देव के चार पांच पीढ़ियो बाद बस्तर के राजा बने भूपालदेव। इनकी शासन अवधि 1842 से 1853 ई. तक मात्र ग्यारह वर्ष थी। महाराज भूपालदेव भगवान शिव के परमभक्त थे। इन्होने अपनी रानी वृंदकु ंवर बघेलिन की प्रेरणा से दलपत सागर के मध्य शिवमंदिर बनवाया था। यह मंदिर उनके नाम पर भूपालेश्वर महादेव के नाम से जाना जाता है। यह छोटा सा शिवमंदिर दलपतसागर के मध्य में एक टापू पर स्थित है। यहां सिर्फ नाव द्वारा ही पहुंचा जा सकता है।  महाराज भूपालदेव को लगभग 34 वर्ष की उम्र में पुत्र भैरमदेव के पिता बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। पुत्र प्राप्ति को भगवान शिव का आर्शीवाद मानते हुये उन्होने दलपत सागर के मध्य यह शिवमंदिर बनवाया था। लगभग 170 वर्ष से अधिक पुराना यह मंदिर बस्तर के काकतीय चालुक्य राजवंश की कुछ चुन...

नागों के भगवान विष्णु

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नागों के भगवान विष्णु......! बस्तर में 760 ई से 1324 ई तक छिंदक नागों की अलग अलग शाखाओं ने शासन किया। तत्कालीन नाग नृपतियों अपने राजत्व काल में अपने ईष्ट देव या देवी के अनेकों मंदिर बनवाये और कई प्रतिमायें स्थापित करवायी। नाग सोमेश्वर देव का राजत्व काल 1069 ई से 1108 ई तक था। नाग सोमेश्वर की माता एवं राजा धारावर्ष की पत्नी गुंड महादेवी भगवान विष्णु की परम भक्त थी। गुंडमहादेवी ने प्रसिद्ध चित्रकोट जलप्रपात के पास ही नारायणपाल ग्राम में 1111 ई में भगवान विष्णु का भव्य मंदिर बनव ाया था। वह मंदिर आज भी सुरक्षित अवस्था में है। यह मंदिर बस्तर का एकमात्र विष्णु मंदिर है। मंदिर की स्थापत्य कला की चर्चा फिर कभी करेंगे। मंदिर के गर्भगृह में भगवान विष्णु की बेहद ही कलात्मक प्रतिमा स्थापित है। यह प्रतिमा एक चौकी पर स्थापित है। इसकी उंचाई लगभग दो फिट है। काले प्रस्तर से निर्मित प्रतिमा समभंग मुद्रा में प्रदर्शित है। प्रतिमा चर्तुभुजी है। जिसमें उपर के दोनो हाथों में शंख एवं चक्र धारण किये हुये है। नीचे के दोनो हाथ खंडित है। सिर पर पांच सर्प फणों वाला छत्र है। प्रतिमा के दोनो तरफ उपर की ओर विद्याधरो...

दुर्लभ हो चुकी डूढूम मछली

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बस्तर में दुर्लभ हो चुकी डूढूम मछली.....! नदियों में पाये जाने वाले जलीय जीवों को खाने से शरीर रोगमुक्त रहता है, इसी मान्यता के चलते बस्तर में बहुत से जलीय जीवों को प्रमुखता से एवं बड़े शौक से खाया जाता है। इन जीवों में मछली, केकड़ा, झींगा आदि है। मछली की कई प्रजातियां बस्तर के नदियों में पायी जाती है। इनमें से एक मछली है जो देखने में बिलकुल सांप के जैसी डरावनी लगती है परन्तु रोगों के दवा के रूप में इस मछली को चाव से खाया जाता है। यह मछली है डूढूम मछली। यह मछली ईल मछली की एक प ्रजाति है। ईल मछलियों में कुछ मछलियां जोरदार करंट का झटका भी देती है। परन्तु डरिये मत इस मछली को पकड़ने से करंट का झटका नहीं लगता वरन सांप जैसी दिखने के कारण डर जरूर लगता है। नदी नालों के खोह में रहने वाले डुढूम मछली अब विलुप्ति के कगार पर है। बरसात के दिनों में ये मछलियां अपने खोह से निकलकर नदियों के खुले पानी में आ जाती है। जिस कारण उस समय इन मछलियों का अत्यधिक शिकार किया जाता है। जिससे यह डुढूम मछली अब बस्तर में दुर्लभ हो चुकी है। यह मछली आकार में बिलकुल सांप की तरह दिखाई देती है। पहली बार देखने से तो यह मछली कम ...

चार (चिरौंजी) के पेड़

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तेजी से कम हो रहे है, चार (चिरौंजी) के पेड़ ......! बस्तर में एक समय में चार के पेड बहुतायत में पाये जाते थे। किंतु अब धीरे धीरे इन पेड़ो की संख्या कम होती जा रही है। दरअसल यहां के स्थानीय लोग इन पेडो से चार के फल तोडने के लिये पुरे वृक्ष को ही काट देते है। अंधाधुंध वृक्षो की कटाई भी प्रमुख कारण है। चार के पेड़ पर गोल और काले कत्थई रंग का एक फल लगता है। यह फल पकने पर मीठा और स्वादिष्ट होता है और उसके अन्दर से बीज प्राप्त होता है। बीज या गुठली का बाहरी आवरण मजबूत होता है। इसे तोड़ कर उसकी मींगी निकलते है। यह मींगी ही चिरौंजी कहलाती है और एक सूखे मेवे की तरह इस्तेमाल की जाती है। चिरौंजी के अतिरिक्त, इस पेड़ की जड़ों , फल , पत्तियां और गोंद का भारत में विभिन्न औषधीय प्रयोजनों के लिए उपयोग किया जाता है। चिरौंजी का उपयोग कई भारतीय मिठाई बनाने में एक सामग्री की तरह इस्तेमाल किया जाता है। चिरौंजी एक बेहद ही महंगा मेवा है। एक समय ऐसा था कि बस्तर में आदिवासी पहले नमक के बदले चिरौंजी देते थे। नमक के भाव में चिरौंजी का मोल था। अब स्थिति बदल गयी है। बस्तर में जगदलपुर का टाकरागुड़ा ऐसा स्थान है जहां के 50...

छेरीगुडा

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छेरीगुडा .....! दोस्तो बस्तर मे लगभग सभी आदिवासी पशुपालक है. गरीब से गरीब आदिवासी के यहां 10 - 20 जानवर तो होते ही है. सम्पन्न लोगो के पास तीन सौ तक जानवर होते  हैं. जानवरो मे गाय ,बैल , भैंस बकरी प्रमुखत: से पाले ज़ाते हैं. जानवरो से दूध नही निकाला जाता है। इनका उपयोग सिर्फ कृषि कार्य मे या मांस प्राप्त करने मे होता है। घरो के सामने ही खुले आसमान के तले य़ा फिर खुले कमरे मे जानवरो को बांधा जाता है। बकरिया भी घरो मे ऐसे ही खुले मे बांधी जाती है। मैने सुदुर दक्षिण बस्तर मे बकरियो को बांधने का एक प्राचीन तरिका देखा. सामान्यत: लगभग बस्तर अौर अन्य सभी जगह मे बकरिया खुले मे ही बांधी जाती है। परंतु यहां दक्षिण बस्तर मे बकरियो को बांधने के लिए लकड़ीयो का एक छोटा सा घर बनाया जाता है। इन्हे छेरीगुडा कहते है. लकडियो के बीच मे खाली जगह रहती है ताकि पर्याप्त रोशनी एवं हवा मिलती रहे. छत को घासफुस से ढक दिया जाता है। इस छेरी गुडा को जमीन से एक फीट उपर रखा जाता है। ताकि बरसात मे अन्दर पानी ना घूसे. छेरीगुडा घर के सामने ही रखते है. इसमे बकरिय़ां हिंसक जानवरो से सुरक्षित रहती हैं. घर मे इनकी बदबू भी न...

कोटपाड़ जो कभी बस्तर में था

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कोटपाड़ जो कभी बस्तर में था......! जगदलपुर से ओडिसा जैपोर जाने के मार्ग में सबसे पहला कस्बा कोटपाड़ आता है। इस कोटपाड़ का बहुत ऐतिहासिक महत्व है। इस पर अधिकार के लिये जैपोर और बस्तर राज्य में कई खुनी संघर्ष हुये है। ओडिसा का कोटपाड़ जो कभी बस्तर में था वह आज ओड़िसा में है। इसके पीछे बस्तर के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना का उल्लेख मिलता है।  बस्तर के राजा दलपत देव ने अपनी युवावस्था में ही अपनी पटरानी के पुत्र अजमेर सिंह को ड़ोंगर का उतराधिकारी बना दिया था। दलपत देव ने जगदलपुर में अ पनी राजधानी बनायी थी और दलपत सागर भी इन्ही की देन है। राजा दलपत देव की मृत्यु के बाद उसके दुसरे पुत्र दरियादेव जो कि स्वयं राजा बनना चाहता , उसने अजमेर सिंह पर चढाई कर दी ,परंतु अजमेर सिंह ने अपने मामा कांकेर के राजा से सैन्य सहायता प्राप्त कर जगदलपुर पर अधिकार कर लिया ।  दरियादेव पराजित होकर जैपौर भाग गया। सन 1774 में अजमेर सिंह ने बस्तर राज्य की सत्ता संभाली। दरियादेव ने बस्तर का राजा बनने के लिये जैपौर के राजा विक्रम देव से मित्रता कर ली। उसने विक्रम देव के माध्यम से भोंसले शासन , ईस्ट इन्डिया कंपनी के...

दंतेवाड़ा का कड़कनाथ

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दंतेवाड़ा मे कड़कनाथ .....! कड़कनाथ एक तरह से जंगली मूर्गे की प्रजाति है. देशी य़ा बायलर मूर्गे की अपेक्षा इसका मांस अधिक पौष्टिक एवं स्वादिष्ट होता है। इस मूर्गे का सिर्फ रँग ही काला नही होता वरन इसका मांस , खुन भी काला ही होता है. दंतेवाड़ा जिला प्रशासन ने स्थानीय स्तर पर स्वरोजगार के लिए दंतेवाड़ा मे इसके संवर्धन की दिशा मे उल्लेखनीय कार्य किया है ज़िसकी ज़ितनी तारीफ की जाए उतनी ही कम है. कड़क नाथ मूर्गे का मांस बाजार मे 700 रूपये प्रति किलो तक बिक रहा है. दंतेवाड़ा से हैदराबाद के  बाजारो मे कड़कनाथ का मांस विक्रय करने की योजना की दिशा मे भी काम हो रहा है. कड़क नाथ के पालन से निश्चित तौर पर दंतेवाड़ा के निवासियो के आर्थिक उन्नति के द्वार खुल गये है. अभी कुछ दिनो पूर्व ही छत्तीसगढ़ (दंतेवाड़ा )ने कड़कनाथ मूर्गे की जीआई टैग ( भौगोलिक संकेतक ) के लिये दावा किया था. परंतु यह प्रजाति झाबुआ की होने के कारण कड़कनाथ का जीआई टैग मध्य प्रदेश (झाबुआ)को मिल गया.छत्तीसगढ़ (दंतेवाड़ा) का दावा कमजोर पड़ गया. दंतेवाड़ा मे कड़कनाथ की अधिक उत्पादन एवं संरक्षण के कारण जीआई टैग की मांग की गई थी. यदि झाबुआ द्वारा कड़कनाथ ...