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Showing posts from May, 2018

कुसूम की उपेक्षा

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कुसूम की उपेक्षा.....! शीर्षक देखकर किसी कुसूम नाम की युवती की पोस्ट ना समझिये, मैं बात कर रहा हूं कुसूम फल की। जिसे आप में अधिकांश लोगो ने खाया होगा। बस्तर में मौसमी फलों की बंपर पैदावार होती है। आदिवासी जंगलों से इन फलों को लाकर बेचते है जिससे उन्हे अच्छी खासी आय हो जाती है। कुछ फल ऐसे है जिनकी उत्पादकता बहुत है परन्तु खपत शून्य है। वैसा ही एक फल है कुसूम।  कुसुम गोल गोल हरा सा बेर के आकार का फल होता है। उपर हरा आवरण होता है अंदर बीज के उपर नारंगी रंग खटटी मीठी गुदे की परत चढ़ी होती है जिसे खाया जाता है। बाजार में इस फल की बहुत ही कम डिमांड है जिसके कारण ये पेड़ो पर सड़ जाते है। इस फल से विटामिन सी की प्राप्ति होता है। इसका स्वाद खटटा मीठा होता है। मीठे कुसुम फल ज्यादा अच्छे लगते है। मेरी ढाई साल की बेटी ने कल पहली बार छिंद का फल खाया है जल्द ही कुसूम फल का भी स्वाद चखाना है।  आप ने कुसूम फल खाया है कि नहीं ? किस नाम से जानते है आप? फोटो नेट से लिया गया है जिस किसी सज्जन ने यह फोटो लिया उसके लिये धन्यवाद। 

गोबर बोहारनी

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बस्तर  का गोबर बोहारनी तिहार.......! बस्तर में धान बोनी की शुरूवात के साथ गांवों में माटी तिहार बीज पंडुम और गोबर बोहरानी उत्सव प्रारंभ हो गया है। इसके चलते वनांचल में ग्रामीणों ने खेतों की पहली जुताई कर तीन दिनों तक उत्सव मनाया. सबसे पहले यहां के किसानों ने बोनी के उद्देश्य से अपने खेतों की पहली जुताई की। साजा पेड़ के नीचे जमीन में कीचड़ कर तथा धान के बीज मिला कर धरती में बीज गर्भाधान की परंपरा पूरी की। इसके बाद गांव के सभी देवी देवताओं की आराधना की गई उसके बाद दर्जनों ग्रामी ण पारद करने जंगल गए। महिलाओं ने इनके पीठ में गोबर से अपनी हथेली का निशान बनाया । इधर जो लोग पारद में नहीं गए उनके ऊपर गोबर फेंक कर परंपरानुसार गालियां दीं गईं। इधर जंगल से मार कर लाए गए जंगली चूहों पकाकर सामूहिक भोज किया गया। सैकड़ों किसान धान बीज लेकर देवगु़ड़ी पहुंचे । यहां ग्रामीणों द्वारा लाए गए बीज का कुछ हिस्सा भूमि में अर्पण करने के बाद शेष बीज ग्राम पुजारी ने लौटा दिया जिसे किसान अपने खेतों में छिड़क आए। वहीं बैलों को खेतों में चलाकर गो़ड़ खुंदनी रस्म पूरी की गई। इस संबंध में किसानों का मानना है कि जब ...

वामन विष्णु

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वामन विष्णु बौने विष्णु....! बस्तर में एक गाँव में मुझे भगवान विष्णु के बौने स्वरूप अर्थात वामन विष्णु की यह प्रतिमा देखने को मिली है। वामन अवतार का नाम सुनते ही यह कथा याद आ जाती है कि भगवान विष्णु ने वामन रूप धर कर राजा बलि से तीन पग जमीन मांगी थी। वामन अवतार के नाम सुनते ही मन मस्तिष्क में छाता और कंमडल लिये हुये भगवान विष्णु के वामन अवतार की कथा वाली छवि घुमने लगती है।  लेकिन यह प्रतिमा उस छवि से काफी भिन्न है। ओम सोनी दंतेवाड़ा कहते है कि देखने में तो विष्णु की यह आम प्रतिमाओं जैसे ही है, परन्तु गौर से देखने पर इस प्रतिमा में भगवान विष्णु को बौने के स्वरूप में प्रदर्शित किया गया है। यह प्रतिमा बीच से खंडित हो चुकी है। इसमें भी विष्णु की अन्य प्रतिमाओं की तरह ही आयुधों का अंकन है। चतुर्भुजी विष्णु के हाथों में क्रमशः शंख , चक्र , गदा का अंकन हैं , प्रतिमा का एक हाथ खण्डित है। सिर पर किरीटमुकुट , कानो में कुण्डल, गले में हार वन माला, कमर में मेखला एवं पैरों में  का अंकन है। साथ में वाहन गरूड़ भी बैठे हुये है। यह इस प्रकार की बौने स्वरूप में भगवान विष्णु की यह प्रतिमा बेहद ही ...

सूता

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पुरानी पीढ़ी का पुराना गहना - सूता....! चलो आज हम बात करते है गहनों की। गहने पहनना किसे अच्छा नहीं लगता। नर हो या नारी सभी गहने पहनना पसंद करते है। मनुष्य प्राचीन काल से आभूषण पहनने का शौकिन रहा है। अपने शरीर के हर अंगो को आभूषणों से अलंकृत करता आया है। गहने पहनने के मामले में पुरूषों की अपेक्षा महिलायें अधिक भाग्यशाली एवं आगे है। आभूषण महिलाओं के श्रृंगार है। नारी के सोलह श्रृंगार आभूषणों के बगैर पुरे नहीं होते है। शरीर के प्रत्येक अंग के लिये अलग अलग गहने होते है। सोने, चांदी, तांबे , पीतल एवं रत्न हीरे मोती जड़ित आभूषणों की लंबी श्रृंखला है जो कि सर्वप्रिय है। वैसे गले में हार, कंठाहर , मोतीहार, सिक्को की माला जैसे कई गहने पहने जाते है और प्राचीन प्रतिमाओं में भी गहनों का अंकन दिखाई देता है। गले में वैसे सोने के हार ही ज्यादा पहने जाते है परन्तु गले के कुछ गहने चांदी के ही अच्छे लगते है जैसे सूता। आज हम बात करते है गले का आभूषण सूता की।  बस्तर अंचल और छत्तीसगढ़ क्षेत्र में अधिकांशत पुरानी पीढ़ी की महिलाओं के गले में सूता पहना हुआ दिखाई पड़ता है। बस्तर अंचल में सूता बहुत पहले से प्रचल...

सुकमा के जमींदार

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सुकमा के जमींदार - रामराज और रंगाराज आज हम बात करते है सुकमा की। सुकमा 2012 में दंतेवाड़ा से अलग होकर नया जिला बना है। सुकमा का नाम लगभग आप सभी ने माओवादी घटनाओं के कारण ही सुना होगा। सुकमा का अपना अलग इतिहास रहा है। सुकमा रियासत कालीन बस्तर में एक बड़ी जमींदारी रही है। चक्रकोट (प्राचीन बस्तर) में सन 1324 में अन्नमदेव ने अंतिम नाग शासक राजा हरिशचंद्र देव पर विजय पाकर बस्तर में चालुक्य वंश की नींव रखी। सुकमा राजपरिवार की अन्नमदेव से पूर्व यहां आने के कुछ सुत्र मिलते है।  सुकमा राजपरिवार ने अन्नमदेव की अधीनता स्वीकार कर बस्तर राज परिवार से अपने वैवाहिक संबंध स्थापित किये। सुकमा राजपरिवार की कुल 09 राजकुमारियां बस्तर राज परिवार को ब्याही गई ऐसी जानकारी बस्तर इतिहास में मिलती है। रियासत काल में सुकमा को जमींदारी बना दी गई। सुकमा राजपरिवार से जुड़ी एक बेहद रोचक मिलती है वो यहां के जमींदारों के नामों के क्रमिकता। भारत की आजादी तक सुकमा के लगभग 11 पीढ़ियों में जमींदारों के नाम रामराज और रंगाराज मिलते है। यदि पिता का नाम रामराज तो बेटा रंगाराज कहलाता।  इस संबंध में महत्वपूर्ण जानकारी बस्त...

छिन्द में छुपा है बस्तर

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छिन्द में छुपा है बस्तर.....! बस्तर में लगभग सब जगह छिन्द के पेड़ आपको दिखाई देंगे। यह खजुर की पेड की ही एक उप प्रजाति है। किन्तु खजुर से अलग है। यह पेड़ पांच फीट से चालीस फीट तक का ऊँचा होता है। अप्रेल के अंत में इन पेडो पर गुच्छो में फल लगने लग जाते है। बस्तर में इस फल को छिन्दपाक कहा जाता है। अभी पुरे बस्तर के छिन्द पेडो में हरे हरे छोटे छोटे छिन्दपाक लगे हुए है। ये फल मई माह के अंत तक पक जायेंगे। फल लगने से लेकर पकने तक ये फल तीन बार अपना रंग बदलते है, शुरूआत में हरा , मध्य में स्वर्ण की तरह पीला , और पकने पर भूरे कथ्थई रंग के हो जाते है। अभी कहीं कहीं छिन्द के फल पीले हो चुके है , जब सूर्य की रोशनी इन पीले छिन्द के गुच्छो पर पड़ती है तब ये फल सोने से बने फल जैसे लगते है। कहीं कहीं छिन्द पाक पक कर बाजारो में आ चुके है.। यह मीठा एवं खजुर की तरह होता है पर खजुर से भिन्न होता है। खजुर का आकार बड़ा होता है इसका आकार छोटा होता है। सुखने पर इसका खारक नहीं बनता है। छिन्द पाक को खाने से पानी प्यास बहुत लगती है। इसे सुखा कर भी रखा जाता है ताकि वर्ष भर खाया जा सके। छिन्द के पेडो से फल के अतिरिक्...

खपरा

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खपरा कहते है इसे ......! दोस्तो यह खपरा है , यह कच्चे घर की छत है. इसे कवेलू भी कहते है. बस्तर मे आदिवासी खुद ही खपरा बनाते है और घरो की छत मे उपयोग करते है. खपरा बनाने के लिये लकड़ी के सांचे होते है, उन सांचो मे अच्छी तरह की चिकनी मिट्टी को खपरा का आकार देकर सुखा दिया जाता है। फिर उन कच्चे खपरो को आग मे पकाया जाता है। फिर तैयार खपरो को छत मे लगाया जाता है।  खपरो की छत वाले घर बेहद ठंडे एवँ गर्मी के लिये अनुकुल होते है. अब तो खपरे वाले घर भी टिन य़ा कांक्रीट की पक्के छत वाले घरो मे तब्दील होते जा रहे हो. बस्तर मे गांवो मे अधिकांशत घर टिन की छत वालो मे परिवर्तित होते जा रहे है. जब खपरे वाली छत ही नही होगी तो खपरे कौन बनायेगा ?

वेवरी

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वेवरी : बेवरी : विवर # Water_hole (pit)_in_the_River जहाँ नदी का बहाव होता है, वहीं के लोग यह जानते हैं कि वेवरी क्या होती है ! प्रकृत पानी को प्रवाह क्षेत्र में ही गड्ढा बनाकर पाना और पीना। यह गड्ढा वेवरी है। लम्बे काल तक जिस नदी में पानी बना रहे और जिसमें बालू का बिछाव हो, वहाँ वेवरी सुगमता से बन जाती है। हथेलियों से रेत हटाई और विवर या छेद तैयार, कुछ ही देर में धूल नीचे जम जाती है और पानी साफ़ हो जाता है। यह कपड़छन की तरह वालुकाछन पानी होता है। इसके अपने गुणधर्म है। नदी में कपड़े आदि धोते और दूसरे काम करते समय प्यास लगने पर पानी वेवरी से ही सुलभ होता और मुंह लगाकर खींचा जाता या फिर करपुट विधि (हाथों को मिलाकर) पिया जाता। एक वेवरी के गन्दी होने, अधिक पानी से बालुका के भर जाने पर दूसरी वेवरी बनाई जाती। शायद कूप खोदने की विधि को मानव ने इसी से सीखा होगा। छोटे छेद में पानी कम होने पर मिट्टी निकलने और गड्ढे के बड़े होने ने कूप खनन करवाया एवं इसको पक्का, मजबूती देने पर विचार किया गया। ऐसे कूप से ही घरगर्त बने जो सिंधु आदि नदीवर्ती घरों में बने मिलते हैं। भविष्य पुराण में इस परम्परा की स्मृति ...

सुक्सी

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सुक्सी ....! बस्तर मे इन छोटी छोटी सुखी हुई तली हुई मछलियो को सुक्सी कहा जाता है। नदी तालाबो से जाल के माध्यम से इन छोटी छोटी मछलियो को पकड़ा जाता है। मछलियो को धूप मे सुखाया जाता है। तेल मे तला भी जाता है। आग में भूना जाता है। फिर आदिवासी महिलाये हाट बाजार मे पत्तो के दोनो मे सुक्सी को बेचती है. 50 से 100 रूपये एक दोने के मिल ज़ाते हैं ये सुक्सी बड़ी क्रंची एवं टेस्टी होती है. प्रोटीन से भरपुर सुक्सी को सब्जी य़ा भेंडा भाजी के साथ बनाकर खाया जाता है। आप ने भी सुक्सी ज़रूर खा यी होगी . मैने तो बता दिया कुछ तो आप भी बतायेंगे ना सुक्सी के बारे मे-

डंडारी नृत्य

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बस्तर का डंडारी नृत्य......! बस्तर में आज बहुत से लोकनृत्य विलुप्त होने की कगार पर है। कुछ पर्व त्यौहारों के अवसर पर ऐसे विलुप्त होते नृत्य देखने को मिल जाते है । ऐसा ही एक नृत्य है जो बस्तर की धरती से आज लगभग विलूप्त होने की कगार पर है यह नृत्य है डंडारी नृत्य। दंतेवाड़ा के मारजूम चिकपाल के धुरवा जनजाति के ग्रामीणों ने आज भी इस डंडारी नृत्य को आने वाली पीढ़ी के लिये सहेज कर रखा है। यह नृत्य बहुत हद तक गुजरात के मशहूर डांडिया नृत्य से मेल खाता है। इस नृत्य में बांसूरी की धुन पर नर्तक बांस की खपचियों को टकराकर जो थिरकते है बस दर्शक मंत्रमुग्ध होकर नृत्य को एकटक देखते रह जाते हेै। डांडिया नृत्य में जहां गोल गोल साबूत छोटी छोटी लकड़ियों से नृत्य किया जाता है । वहीं डंडारी नृत्य में बांस की खपचियों से एक दुसरे से टकराकर ढोलक एवं बांसूरी के साथ जुगलबंदी कर नृत्य किया जाता है। बांस की खपच्चियों को नर्तक स्थानीय धुरवा बोली में तिमि वेदरीए बांसुरी को तिरली के नाम से जानते हैं। तिरली को साध पाना हर किसी के बूते की बात नहीं होती। यही वजह है कि दल में ढोल वादक कलाकारों की तादाद ज्यादा है जबकि इक्के....

चटाई

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मसनी घास की चटाई.....! दोस्तों लोहंडीगुडा की यह बुढ़ी महिला चटाई बना रही है। घरों में अब ऐसी परंपरागत चटाई का स्थान प्लास्टिक के मैट ने ले लिया। यह चटाई एक तरह के घास जो स्थानीय तौर पर मसनी धास के नाम से जाना जाता है, उस घास को तोड़कर यह चटाई बनायी जाती है। इसे बोता मसनी भी कहा जाता है।  लकड़ी के सांचे में चटाई बुनाई का कार्य किया जाता है। अब चटाई बनाने का यह काम प्लास्टिक के मैट के वजह से लगभग बंद सा हो गया है। घरों में अब मसनी घास की यह चटाई देखने को भी नहीं मिलती सब जगह प्लास्टिक की मैट ही मिलती है। यह चित्र लोहंडीगुडा की एक महिला का है जो घर में मसनी घास की चटाई बनाती है। फोटो दिया है अंकिता अंधारे जी ने।

बांस में खाना

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बांस में पकाया जाता है खाना......! आज हम सभी स्टील के बर्तनों मंे खाना पकाते है। अब भी कहीं कहीं पूर्व समय की तरह अब भी मिटटी के बर्तनों में खाना पकाते है। पूर्व में  बर्तनों के अभाव होने के कारण जंगल में रहने वाले आदिवासी पत्तों में, जमीन खोदकर, या गर्म पत्थरों पर अपना खाना तैयार करते रहे है। खाना पकाने के लिये बांस का भी इस्तेमाल किया जाता रहा है। खोखले मोटे बांस का इस्तेमाल खाना पकाने के बर्तन के रूप में किया जाता रहा है।  बस्तर एवं दुनिया के लगभग सभी जंगली क्षेत्रों में जहां बांस बहुतायत में पाये जाते है वहां बांस में खाना पकाने का यह तरीका प्रचलित रहा है। बस्तर के नारायणपुर के माड़ क्षेत्र एवं मध्य बस्तर के आसपास में इन खोखले बांसों में खाना पकाने की यह तरीका अब भी देखने को मिलता है। स्टील के बर्तनों की अपेक्षा मिटटी या अन्य प्राकृतिक वस्तुओं की मदद से पका खाना बेहद स्वादिष्ट होता है।  हरे खोखले मोटे बांस को पहचान कर उसे काट लिया जाता है। अधिकांशतः उपर से काट कर उसके अंदर पानी एवं चावल डालकर जलती हुई आग में खड़ा रख दिया जाता है। या बांस को आडा कर लंबाई से काट दिया जाता...

गंगा ईमली

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गंगा ईमली की वो मिठास......! दोस्तों आज बात करते है अंग्रेजी ईमली की। आप सभी ने बचपन में इसे खुब खाया होगा। इसे देखकर आपके बचपन की यादें ताजा हो गई होगी। पेड़ों पर पत्थर मारकर, या बांस के सहारे तोड़ तोड़ कर बड़े चाव से यह ईमली खायी होगी। इसके लिये घर वालों से डांट भी खुब खाई होगी, मार भी पड़ी होगी। बस ऐसा ही मेरे साथ भी हो चुका है। यह ईमली मुझे बहुत पसंद है। इसे हम गंगा ईमली भी कहते है। देखने में बिलकुल जलेबी की तरह गोल गोल होती है। पकने पर यह हरे से गुलाबी रंग की हो जाती है। इस के अंदर के गोल गोल दाने बेहद ही मीठे एवं गुदेदार होते है। वे भी सफेद एवं गुलाबी हो जाते है। बहुत ही मीठी एवं स्वादिष्ट होती है यह गंगा ईमली। इसका पेड़ कांटो से युक्त लगभग 10-15 मीटर उंचा होता है। यह ईमली मूलत मैक्सिको , दक्षिण मघ्य अमेरिका की उपज है। मैक्सिको में तो विभिन्न व्यंजनों में इस अंग्रेजी ईमली का उपयोग किया जाता है। यह गंगा ईमली भारत के विभिन्न क्षेत्रों के पायी जाती है। बस्तर में भी इसके बहुत से पेड़ देखने को मिलते है। खासकर मध्य बस्तर में चित्रकोट के आसपास इसके पेड़ बहुतायत में है। हमने तो बहुत खायी है यह ग...

मुरिया दरबार

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मुरिया दरबार .....! बस्तर का दशहरा विश्व का सबसे लम्बा चलने वाला दशहरा है. कुल 75 दिनो का बस्तर दशहरा अपने विभिन्न आदिम रिवाजो एवं रथय़ात्रा के लिये विश्व भर में प्रसिद्ध है. इस बस्तर दशहरे मे एक बेहद ही रोचक कार्यक्रम का आयोजन होता है। यह कार्यक्रम मुरिया दरबार के नाम से जाना जाता है। आश्विन शुक्ल द्वादश के दिन काछिन जात्रा के बाद सायं को जगदलपुर के सिरासार भवन मे मुरिया दरबार का आयोजन होता है। मुरिया दरबार मे बस्तर के राजा एवँ प्रजा के बीच विचारो का आदान प्रदान होता था . बस्तर के प्रत्येक माँझी चालकी अपने क्षेत्र की समस्याओ को राजा के सम्मुख रखते थे. समस्याओ एवँ शिकायतो के निवारण हेतु खुली चर्चाये होती थी. यह मुरिया दरबार बस्तर का प्रमुख आकर्षण है ज़िसमे प्रजातंत्र को प्रोत्साहित किया जाता था. बस्तर मे भले ही आदिवासी किसी भी समाज का ही क्यो ना हो सब के लिये मुरिया शब्द का ही प्रयोग प्रचलित है. यह एक तरह से बस्तर की पहचान है.इसीलिये इस आयोजन को आदिवासी दरबार ना कहकर मुरिया दरबार के नाम से ही जाना जाता है। मुरिया दरबार का आयोजन 1876 से प्रारम्भ हुआ है. उस समय बस्तर के राजा भैरमदेव थे. इन...

गुंडमहादेवी

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गुंडमहादेवी ......! बात सन 1106 की है. चक्रकोट के स्वामी नाग सोमेश्वर अब लगभग 80 वर्ष के हो चुके थे, एक शतक की आयु पुरी कर चुकी माँ गुंड महादेवी अब भी बेटे सोमेश्वर की कदम कदम पर मार्गदर्शन करती थी. बस्तर भूषण पेज कहता है कि कलचुरी राजा युवा जाजल्यदेव ने अपने पिता की हार का बदला लेने के लिये चक्रकोट पर भीषण आक्रमण कर दिया ,तब सोमेश्वर के बुढ़े बाजुओ मे अब वो बल नही रहा जब वो कौशल के छ लाख गांवो का स्वामी था. वाणी मे वो हुंकार नह ी थी जो सेना का मनोबल उठा सके , बेटा कन्हर उतना योग्य नही था. इन सब कारणो से जाजल्यदेव चक्रकोट (बस्तर ) मे अन्दर तक घुस आया , चक्रकोट हार गया , वृद्ध नाग सोमेश्वर परिवार सहित बन्दी बना लिया गया ,  बस्तर भूषण पेज  Bastar Bhushan फिर कहता है कि बेहद बुढ़ी गुँड महादेवी के संस्कारो एवँ लालन पालन ने सोमेश्वर को चक्रकोट के गददी पर बैठाया , वो मां अपने बेटे को मरता कैसे देख ले , गिर पड़ी जाजल्यदेव के पैरो मे , गिड़ गिड़ाने लगी , बुढ़ी मां की ममता आंसुओ से बहने लगी , यह सब देख जाजल्यदेव पिघल गया , आँखो से उसके आंसुओ की धार बहने लग गई , मन ग्लानी से भर गया , अपनी मां...

सुकलू का स्वरोजगार

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सुकलू का स्वरोजगार .....! मित्रो यह सुकलू गोंड है , 65 बसंत देख चुका सुकलू कठोर श्रम के कारण अब भी स्वस्थ एवँ तन्दुरुस्त है , साल के बाकी दिनो मे खेती का काम करता है. अब गर्मी मे करने को कुछ काम तो नही है. इसलिये घर में बैठे बैठे रस्सी ही बना लेता है. प्लास्टिक के बोरो को खोलकर उन्हे बटकर मजबूत रस्सिया बना ली जाती है। ये रस्सिय़ां गाय भैंस को बांधने मे उपयोग ली जाती है। इन रस्सियो को डामा कहा जाता है। बाजार मे एक डामा 30 रूपये मे बिकता है. आज सुकलू सुबह सुबह मेरे मोहल्ले मे  डामा बेचने आया था. उसने 25 के भाव से 8 डामा बेच कर अपनी आज की 200 रूपये की रोजी पक्की कर ली. सुकलू खाली वक्त मे ऐसे ही रस्सिय़ां बना कर बेचता है. दोस्तो फंडा यह है कि बस्तर के आदिवासी बहुत मेहनती होते है. समय का सदुपयोग कर स्वरोजगार से अपना गुजर बसर कर लेते है.

कोटरी नदी

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बस्तर की नदियाॅ उगले सोना......! मेरे देश की धरती सोना उगले , उगले हीरा मोती मेरे देश की धरती, उपकार फिल्म का यह गाना तो आप सभी ने सुना ही होगा। इसी तर्ज पर यहां बस्तर की नदियां भी सोना उगलती है।  बस्तर की कोटरी नदी एक ऐसी नदी है जिसमें सोने के कण मिलते है। कई पीढ़ियों से सोनझरिया समाज के लोग कोटरी नदी की बालू से सोने के कण निकालने का कार्य करते आ रहे है। कोटरी नदी राजनांदगांव जिले के मोहला तहसील से निकलकर कांकेर नारायणपुर में प्रवाहित होती है। यह नदी इन्द्रावती की प्रमुख सहायक नदी है। इस नदी को परलकोट नदी के नाम से भी जाना जाता है। दुर्गकोंदल क्षेत्र में बहने वाली यह नदी छत्तीसगढ़ के प्रथम शहीद परलकोट के जमींदार गेंदसिंह की शहादत का स्मरण कराती है।  यह नदी उत्तर बस्तर की प्यास बुझाते हुये सोनझरिया लोगों को रोजगार उपलब्ध कराती है। सोनझरिया लोगो नदी की मिटटी को डोंगीनुमा छोटे बर्तनों में एकत्रित कर लेते है। उसमें से महिन कणों को धोकर एवं छान कर अलग कर लेते है। उन महिन कणों को पिघलाया जाता है। कणो को पिघलाकर सोने का रूप दिया जाता है जिसे क्वारी सोना कहा जाता है। कोटरी नदी में यह स...

बस्तर द लॉस्ट हेरिटेज

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बस्तर द लॉस्ट हेरिटेज (Bastar- The Lost Heritage ) बात 1956 की है भारत के मशहुर फोटोग्राफर अहमद अली साहब बस्तर आये थे तब उस समय उन्होने बस्तर की खुबसूरती को अपने कैमरे में कैद कर तत्कालीन आदिवासी जीवन कला संस्कृति को तस्वीरों में सदा के लिये अमर कर दिया। कलकत्ता निवासी अहमद अली साहब का बस्तर आना किस प्रकार से हुआ इसकी एक जानकारी इस प्रकार है - 1956 में स्वीडिश फिल्म निर्देशक अर्न सक्सडॉफ बस्तर के टायगर बाय चेंदरू को लेकर एक फिल्म बना रहे थे फिल्म का नाम था द फलूट एंड द एरो।  उन्हे फिल्म के एक दृश्य के लिये बाघ के शावक की आवश्यकता थी। बाघ के शावक की लाने की उनकी सारी कोशिशें बेकार जा रही थी। तभी किसी ने उन्हे कलकत्ता में रहने वाले पेशेवर पशु निर्यातक जार्ज मुनरो का नाम सुझाया।  मुनरो एक समृद्ध परिवार से थे। उन्होने घर में बाघ के शावक को पालतू जानवर की तरह पाल रखा था। सक्सडॉफ ने मुनरो को बाघ बेचने के लिये राजी कर लिया। मुनरो ने एक स्टील के पिंजरे में बाघ शावक को नारायणपुर भेजने की व्यवस्था कर दी। मुनरो ने अपने अजीज दोस्त अहमद अली को भी अपने साथ नारायणपुर जाने के लिये मना लिया। अ...

नीलगाय

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नीलगाय की यारी......! बस्तर में जंगलों का दायरा सिमटने एवं पानी के कमी का असर जीवों पर दिखने लगा है। अनुकूल रहवास एवं पानी के अभाव में या तो यह बस्तियों में आ रहे हैं या फिर विलुप्त हो रहे हैं। बस्ती के पास आने पर मौकापरस्त लोग एवं हिंसक कुत्ते इन जीवों को आसानी से शिकार बना रहे है। आये दिन हिरण, चीतल, नीलगाय एवं अन्य छोटे जीवों के बस्तियों के आसपास आने एवं मरने की खबर सुनने को मिल रहीं है। दोस्तों आज बात करते है नीलगाय की। एक नीलगाय कई दिनों से लगभग एक साल से मद्देड़ क्षेत्र  में धुम रहीं है। इस नीलगाय को ग्रामीणों से भरपूर प्रेम एवं खाने पीने की चीजें मिल रही है जिससे इस नील गाय की वहां के ग्रामीणों एवं बच्चों से दोस्ती हो गई है।यह नीलगाय इस गांव में स्वच्छंद विचरण करती है। एक साल पहले से ही यह नीलगाय आकर बस गई। उसे कोई खतरा नहीं है और वह बच्चों के पास आकर बैठ जाती है। बच्चे उसे निहारते-छूते रहते हैं। बच्चों ने उसके गले में लाल कपड़े की माला भी टांग दी है। खाने की बढ़िया बढ़िया चीजें खिलाकर पालतू सा बना दिया है। उस पालतू नील गाय का प्रस्तुत चित्र मेरे तनवीर हुसैन जी ने लिया है। उनके ...

गुफा कुटूमसर की

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जानी सी अनजानी सी - गुफा कुटूमसर की ......! बस्तर की पर्याय बन चुकी कुटुमसर गुफा भारत की पहली एवं विश्व की सातवी सबसे बड़ी भूगर्भित गुफा है. गुफाओ से जुड़ी शायद ही ऐसी कोई चर्चा होगी ज़िसमे कुटुमसर गुफा की बाते ना हो. चुना पत्थर की अद्भूत प्राकृतिक कलाकृतियो के कारण पूरे विश्व मे यह अपनी अनूठी पहचान लिये है. उन कलाकृतियो को देखने से ऐसे लगता है मानो प्रकृति ने चांदी के झुमर लटका रखे हो , हलकी सी रोशनी जब इन रजत झुमरो पर पड़ती तब इस गुफा मे चांदी की चमक चारो तरफ फैल जाती है। पर् यटक के मूँह से अनायास ही शब्द निकल आता है " वाह ". प्रकृति ने जी भर कर सौंदर्य लुटाया है गुफा मे. कांगेर घाटी के कोटमसर गांव मे प्रकृति के नैसर्गिक सौन्दर्य के गोद मे यह गुफा अवस्थित है. गुफा का मुहाना संकरा है. 60 फीट नीचे जब सीढ़ियो से उतरकर गुफा मे प्रवेश करते है तब ऐसा अनुभव होता है जैसे हम अनंत अंधकारमयी पाताल लोक मे प्रवेश कर रहे है. यह 4500 फीट से अधिक लम्बी है. इसमे कई कक्ष है. इसके अन्दर कई अन्य गुफाये है जो कई किलोमीटर लम्बी है. जगह जगह बने प्राकृतिक शिवलिंग गुफा मे आध्यात्म का दीपक जलाते है. गुफा...